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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ८ परसमयवक्तव्यतायां चार्वाकाधिकारः भिन्नगुणवाले पदार्थों का जो-जो समुदाय है, उस उस समुदाय में अपूर्वगुण की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे बालु के ढेर से स्निग्धगुणवाले तेल की उत्पत्ति नहीं होती है, अथवा घट-पट के समुदाय से खम्भा आदि की उत्पत्ति नहीं होती है । शरीर में चैतन्य देखा जाता है; वह चैतन्य, आत्मा का ही गुण हो सकता है, भूतों का नहीं । यही सिद्ध करने के लिए नियुक्तिकार दूसरा हेतु भी बतलाते हैं- ( पंचिंदियठाणाणं) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षुः और श्रोत्र रूप पाँच इन्द्रियों के जो उपादान कारण हैं, उनका गुण चैतन्य न होने से भूतसमुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता है । यहाँ कहने का आशय यह है- लोकायतिक लोग, इन्द्रियों से भिन्न कोई दृष्टा नहीं मानते हैं, इसलिए उनके मत में इन्द्रिय ही द्रष्टा हैं। उन इन्द्रियों के जो उपादान कारण हैं, वे ज्ञानरूप नहीं है इसलिए भूतसमुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता है । इन्द्रियों के उपादान कारण ये हैं- श्रोत्रेन्द्रिय का उपादान आकाश है क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय छिद्ररूप है । घ्राणेन्द्रिय का उपादान पृथिवी है, क्योंकि घ्राणेन्द्रिय पृथिवीस्वरूप है । चक्षुरिन्द्रिय का उपादान तेज है क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय तेजोरूप है । इसी तरह रसनेन्द्रिय का जल और स्पर्शनेन्द्रिय का वायु उपादान कारण है । यहाँ अनुमान का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए- इन्द्रियाँ चैतन्य गुणवाली नहीं है क्योंकि वे अचेतन गुणवाले पदार्थों से बनी हैं । अचेतन गुणवाले पदार्थों से जो-जो बना होता है, वह सब अचेतन गुणवाला होता है, जैसे घट:पट आदि । इस प्रकार भी भूतसमुदाय में चैतन्य गुण का अभाव सिद्ध होता है । फिर नियुक्तिकार दूसरा हेतु बतलाते हैं- (ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो ) इन्द्रियाँ प्रत्येक भूतस्वरूप हैं। चार्वाक के मत में दूसरा द्रष्टा न होने के कारण वे ही द्रष्टा है । वे इन्द्रियाँ, प्रत्येक अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं । दूसरी इन्द्रिय के विषय को दूसरी इन्द्रिय ग्रहण नहीं करती है, इसलिए अन्य इन्द्रिय द्वारा ज्ञात अर्थ को अन्य इन्द्रिय नहीं जान सकती है, ऐसी दशा में "मैंने पांच ही विषय जाने" यह सम्मेलनात्मक ज्ञान चार्वाक के मत में नहीं हो सकता है । परन्तु यह सम्मेलनात्मक ज्ञान अनुभव किया जाता है, इसलिए इन्द्रियों से भिन्न कोई एक द्रष्टा अवश्य होना चाहिए। उस द्रष्टा का ही चैतन्य गुण है, भूत समुदाय का नहीं । यहाँ अनुमान का प्रयोग यह है- "भूत समुदाय का चैतन्यगुण नहीं है, क्योंकि भूतों से बनी हुई इन्द्रियाँ, एक-एक विषय का ग्राहक होकर भी सब विषयों के मेलनरूप ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकती । यदि दूसरे द्वारा जाने हुए अर्थ को दूसरा भी जाने, तो देवदत्त द्वारा जाने हुए अर्थ को यज्ञदत्त भी जानने लगेगा, परन्तु यह देखा नहीं जाता है और इष्ट भी नहीं है । T शङ्का - " शरीर रूप में परिणत महाभूत, स्वतन्त्र रूप से चैतन्यगुण उत्पन्न करते हैं"" इस पक्ष में यह दोष है परन्तु जब मिले हुए पञ्च महाभूत परस्पर की अपेक्षा से अर्थात् परस्पर संयोग के कारण चैतन्यगुण उत्पन्न करते हैं, जैसे मिले हुए मद्य के अङ्ग किण्व और जल आदि, परस्पर संयोग के कारण प्रत्येक में न रहनेवाली भी मदशक्ति को उत्पन्न करते हैं, यह पक्ष माना जाता है तब पूर्वोक्त दोष का अवकाश कहाँ है ? | समाधान इसका उत्तर गाथा में आये हुए 'च' शब्द से आक्षेप करके दिया जाता है- यह जो तुमने कहा है कि "मिले हुए पञ्च महाभूतों से परस्पर संयोग के कारण चैतन्य गुण उत्पन्न होता है" इसका समाधान हम विकल्प के द्वारा देते हैं । मिले हुए पञ्चमहाभूत, जिस संयोग के कारण चैतन्य गुण उत्पन्न करते हैं, वह संयोग उन पञ्च महाभूतों से भिन्न है अथवा अभिन्न है ? यदि वह संयोग उन महाभूतों से भिन्न है तब तो छट्ठा भूत एक, संयोग भी होना चाहिए परन्तु तुम्हारे मत में पाँच महाभूतों से भिन्न संयोग नामक छट्ठे भूत को ग्रहण करानेवाला कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि तुमने एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माना है और उस प्रत्यक्ष से संयोग का ग्रहण नहीं हो सकता । यदि उस संयोग को ग्रहण करने के लिए तुम दूसरा प्रमाण अङ्गीकार करो तब तो उसी दूसरे प्रमाण से जीव का भी ग्रहण समझो । यदि उस संयोग को भूतों से अभिन्न कहो तो भी यह सोचना चाहिए कि- प्रत्येक भूत, चेतन अथवा अचेतन हैं ? यदि प्रत्येक भूतों को चेतन कहो तब एक इन्द्रिय की सिद्धि होगी ( भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण करनेवाली पाँच इन्द्रियों की सिद्धि न हो सकेगी ।) ऐसी दशा में पाँच भूतों के समुदाय रूप शरीर का चैतन्य, पाँच प्रकार का होगा। यदि प्रत्येक भूतों को अचेतन मानो तो इस पक्ष में दोष "जो गुण प्रत्येक में नहीं है, वह उसके समुदाय से भी १४
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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