SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १८ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् टीका - रात्रावप्युत्थिताः सन्तो रुदन्तं दारकं धात्रीवत् संस्थापयन्त्यनेकप्रकारैरुल्लापनैः,- "सामिओसि णगरस्स य णक्कउरस्स य हत्थकप्पगिरिपट्टणसीहपुरस्स य उण्णयस्स निन्नस्स य कुच्छिपुरस्स य कण्णकुज्जआयामुहसोरियपुरस्स य" इत्येवमादिभिरसम्बद्धैः क्रीडनकालापैः स्त्रीचित्तानुवर्तिनः पुरुषास्तत् कुर्वन्ति येनोपहास्यतां सर्वस्य व्रजन्ति, सुष्ठु ही:- लज्जा तस्यां मनः अन्तकरणं येषां ते सुहीमनसो लज्जालवोऽपि ते सन्तो विहाय लज्जां स्त्रीवचनात्सर्वजघन्यान्यपि कर्माणि कुर्वते, तान्येव सूत्रावयवेन दर्शयति- 'वस्त्रधावका' वस्त्रप्रक्षालका हंसा इव-रजका इव भवन्ति, अस्य चोपलक्षणार्थत्वादन्यदप्युदकवहनादिकं कुर्वन्ति ॥१७॥ टीकार्थ - स्त्री वशीभूत पुरुष रात में भी ऊठकर रोते हुए बालक को धाई के समान अनेक प्रकार के लालन के शब्दों से सान्त्वना देते हुए अपने गोद में रखते हैं । जैसे कि- हे पुत्र ! तुम नक्रपुर हस्तिपत्तन, कल्पपत्तन, गिरिपत्तन, सिंहपुर; उन्नतस्थान, नीचास्थान, कुक्षिपुर, कान्यकुब्ज, पितामहमुख और सौर्यपुर के स्वामी हो। इस प्रकार के अनेकों बालक के क्रीडाजनक आलापों से बालक को खेलाते हुए स्त्री वशीभूत पुरुष ऐसा कार्य करते हैं, जिससे वे सभी के हास्य के पात्र बनते हैं। जिनका मन अत्यन्त लज्जाशील है अर्थात् जो अत्यन्त लज्जाशील हैं, ऐसे पुरुष भी लज्जा को छोड़कर स्त्री के वचन से सब से छोटा कर्म करते हैं, वही सूत्र के अवयवों द्वारा शास्त्रकार दिखलाते हैं- वे पुरुष धोबी की तरह वस्त्र धोते हैं । वस्त्र धोना तो उपलक्षण है इसलिए दूसरे कार्य जल लाना आदि भी वे पुरुष करते हैं ॥१७॥ - किमेतत्केचन कुर्वन्ति येनैवमभिधीयते ?, बाढं कुर्वन्तीत्याह - -- क्या कोई पुरुष यह कार्य करते हैं ? जिससे तुम यह कहते हो, हाँ, करते हैं, यही शास्त्रकार बतलाते हैं - एवं बहुहिं कयपुव्वं, भोगत्थाए जेऽभियावन्ना । दासे मिइ व पेस्से वा, पसुभूते व से ण वा केई ॥१८॥ छाया - एवं बहुभिः कृतपूर्व, भोगार्थाय येऽध्यापनाः । दासमृगाविव प्रेष्य इव पशूभूत इव स न वा कचित् ॥ अन्वयार्थ - (एवं बहुभिः कयपुवं) इस प्रकार बहुत लोगों ने पहले किया है (भोगत्थाए जेऽभियावन्ना) जो पुरुष भोग के लिए सावधकार्य्य में आसक्त हैं (दासे मिइव पेस्से वा पसुभूते व से ण वा केइ) वे दास, मृग प्रेष्य (क्रीतदास) और पशु के समान हैं अथवा वे (सब से अधम) कुछ भी नहीं हैं। भावार्थ - स्त्री वशीभूत होकर बहुत लोगो ने स्त्री की आज्ञा पाली है । जो पुरुष भोग के निमित्त सावध कार्य में आसक्त हैं, वे दास मृग क्रीतदास तथा पशु के समान हैं अथवा वे सब से अधम तुच्छ हैं । टीका - 'एव' मिति पूर्वोक्तं स्त्रीणामादेशकरणं पुत्रपोषणवस्त्रधावनादिकं तद्बहुभिः संसाराभिष्वङ्गिभिः पूर्वं कृतं कृतपूर्वं तथा परे कुर्वन्ति करिष्यन्ति च ये 'भोगकृते, कामभोगार्थमैहिकामुष्मिकापायभयमपर्यालोच्य आभिमुख्येनभोगानुकूल्येन आपन्ना-व्यवस्थिताः सावद्यानुष्ठानेषु प्रतिपन्ना इति यावत्, तथा यो रागान्धः स्त्रीभिर्वशीकृतः स दासवदशङ्किताभिस्ताभिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते, तथा वागुरापतितः परवशो मृग इव धार्यते, नात्मवशो भोजनादिक्रिया अपि कर्तुं लभते, 'प्रेष्य इव' कर्मकर इव क्रयक्रीत इव वर्चःशोधनादावपि नियोज्यते, तथा-कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहिततया हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यत्वात् पशुभूत इव, यथा हि पशुराहारभयमैथुनपरिग्रहाभिज्ञ एव केवलम्, एवमसावपि सदनुष्ठानरहितत्वात्पशुकल्पः, यदिवा-स स्त्रीवशगो दासमृगप्रेष्यपशुभ्योऽप्यधमत्वान्न कश्चित्, एतदुक्तं भवति-सर्वाधमत्वात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासावुपमीयते, अथवा-न स कश्चिदिति, उभयभ्रष्टत्वात्, तथाहि-न तावत्प्रव्रजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितत्वात्, नापि गृहस्थः ताम्बूलादिपरिभोगरहितत्वाल्लोचिकामात्रधरित्वाच्च, यदिवा ऐहिकामुष्मिकानुष्ठायिनां मध्ये न कश्चिदिति ॥१८॥ 1. स्वाम्यसि नगरस्य च नक्रपुरस्य च हस्तिकल्पगिरिपत्तनसिंहपुरस्य उन्नतस्य निमस्य कुक्षिपुरस्य च कान्यकुब्जपितामहमुखशौर्यपुरस्य च ॥ २८८
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy