SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा १७ हिकामुष्मिकापाया उष्ट्रा इव परवशा भारवाहा भवन्तीति ||१६|| किञ्चान्यत् टीकार्थ पुत्र उत्पन्न हुआ, वही गृहस्थों का फल है क्योंकि कामभोग करना पुरुषों का फल है और काम भोगों का भी प्रधान फल पुत्र का जन्म है । कहा है कि - स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् ( इदं ) अर्थात् पुत्र जन्म होना, स्नेह का सर्वस्व है और धनवान् तथा दरिद्र दोनों के लिए यह सम है, यह चन्दन तथा उसीर के विना हृदय को शीतल करनेवाला लेपन है ||१|| तोतरी भाषा बोलनेवाले बालक ने जो शयनिका कहने के स्थान में शपनिका कहा था वह शब्द सांख्य और योग को छोड़कर मेरे हृदय में वर्तमान रहता है ||२|| लोक में पहला पुत्र सुख है और दूसरा अपने शरीर का सुख है, इस प्रकार पुरुषों के लिए पुत्र परम अभ्युदय का कारण है, उस पुत्र के उत्पन्न होने पर पुरुषों को जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उसे शास्त्रकार दिखलाते हैं- स्त्री कहती है कि- हे प्रियतम ! इस पुत्र को तुम ग्रहण करो, मैं कार्य्य करने में लगी हूँ, मुझको इसे ग्रहण करने का अवकाश नहीं है, यदि तुम इसे नहीं ग्रहण करोगे तो मत करो मैं तो इसकी बात भी नहीं पूछेंगी, इस प्रकार कुपित होकर वह कहती है । वह कहती है कि- मैंने नव मास तक अपने पेट में इसे वहन किया है परन्तु तुम थोड़ी देर तक इसे गोद में लेने से भी घबड़ाते हो, दास का दृष्टान्त जो दिया गया है, वह भी पुरुष पर स्त्री नोकर की तरह आदेश देती है, इस तुल्यता को लेकर ही दिया गया है, परन्तु पुरुष उसकी आज्ञा पालन करता है, इस बात को लेकर नहीं क्योंकि दास अपने मालिक से डरकर उसकी आज्ञा पालन करता है, उसके हृदय में हर्ष नहीं होता परन्तु स्त्रीवशीभूत पुरुष स्त्री के आदेश को अपने पर कृपा मानता हुआ हर्षित होकर उसे पालन करता है । कहा है कि वशीभूत पुरुष जानता है कि मुझको जो अच्छा लगता है, वही मेरी प्रिया करती है परन्तु वस्तुतः वही उसका प्रिय करता है, इसे वह नहीं जानता है ||१|| पुरुष स्त्री की प्रार्थना करने पर अपना प्राण तक दे देता है, अपनी माता को भी उसके लिए मार डालता है वस्तुतः स्त्री की प्रार्थना करने पर पुरुष उसे क्या नहीं दे सकता और क्या नहीं कर डालता ॥२॥ स्त्री वशीभूत पुरुष शौच के निमित्त उसे जल देता है, उसका पैर धोता है तथा उसका थूक भी अपने हाथ पर ले लेता है ||३|| इस प्रकार स्त्रियां पुत्र के लिए तथा दूसरे प्रयोजनों के लिए दास की तरह पुरुष पर आज्ञा करती हैं । इसके पश्चात् पुत्र का पोषण करनेवाले तथा पुत्र पोषण के उपलक्षण होने से स्त्री की सब आज्ञा पालन करनेवाले महामोह के उदय में वर्तमान, स्त्री के आज्ञाकारी इसलोक तथा परलोक के नाश की परवाह नहीं करनेवाले कोई पुरुष ऊंट की तरह भार वहन का कार्य्य करते हैं ||१६|| राओवि उट्टिया संता, दारगं च संठवंति धाई वा । सुहिरामणा वि ते संता, वत्थधोवा हवंति हंसा वा छाया - रात्रावप्युत्थिताः सन्तः दारकं संस्थापयन्ति धात्रीव । सुहीमनसोऽपि ते सन्तः वस्त्रधावका भवन्ति हंसा वा ॥ 118011 अन्वयार्थ - ( राओवि ) रात में भी (उट्ठिया संता) ऊठकर (धाई वा ) धाई की तरह ( दारगं च संठवंति) लड़के को गोद में लेते हैं (ते सुहिरामणा वि ते संता) वे अत्यन्त लज्जाशील होते हुए भी (हंसा वा वत्यधोवा हवंति) धोबी के समान स्त्री और लड़के के वस्त्र धोते हैं । भावार्थ - स्त्री वशीभूत पुरुष रात में भी ऊठकर धाई की तरह लड़के को गोद में लेते हैं, वे अत्यन्त लज्जाशील होते हुए भी धोबी की तरह औरत और बच्चे के वस्त्र धोते हैं । २८७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy