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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा १९ टीकार्थ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् स्त्री की आज्ञा पालन करना, पुत्र का पोषण करना, वस्त्रधोना इत्यादि जो पहले कहे गये हैं ये सब बहुत से संसारी जीवों ने किये हैं और करते हैं तथा भविष्य में करेंगे। जो पुरुष काम भोग की प्राप्ति के लिए इसलोक और परलोक के भय को नहीं सोचकर सावद्य अनुष्ठान में आसक्त हैं, वे सभी पूर्वोक्त कार्य्य करते हैं । तथा जो पुरुष रागान्ध तथा स्त्री वशीभूत है, उसे दास की तरह स्त्रियाँ निःशंक होकर पूर्वोक्त काय्यों से भिन्न कार्यों में भी लगाती हैं । जैसे जाल में पड़ा हुआ मृग परवश होता है, इसी तरह स्त्री वशीभूत पुरुष परवश होता है, वह अपनी इच्छा से भोजन आदि क्रियायें भी नहीं कर पाता है । स्त्री वशीभूत पुरुष क्रीतदास की तरह मलमूत्र फेंकने के काम में भी लगाया जाता है । स्त्री वशीभूत पुरुष कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य तथा हित की प्राप्ति तथा अहित के त्याग से भी रहित पशु के समान होता है । जैसे पशु, केवल भोजन, भय, मैथुन और परिग्रह को ही जानता है, इसी तरह स्त्री वशीभूत पुरुष भी उत्तम अनुष्ठान से रहित होने के कारण पशु के समान ही हैं । अथवा स्त्री वशीभूत पुरुष, दास, मृग, प्रेष्य ( क्रीतदास) तथा पशु से भी अधम होने के कारण कुछ भी नहीं है, आशय यह है कि वह पुरुष सब से अधम है । इसलिए उसके समान दूसरा कोई नीच है ही नहीं जिससे उसकी उपमा दी जावे । अथवा उभय भ्रष्ट होने के कारण वह पुरुष कोई नहीं है । उत्तम अनुष्ठान से रहित होने के कारण वह प्रव्रजित नहीं है तथा नागरवेल के पान आदि का उपभोग न करने से और लोचमात्र करने से वह गृहस्थ भी नहीं है । अथवा इसलोक और परलोक का सम्पादन करने वाले पुरुषों में से वह कोई भी नहीं ||१८|| - - साम्प्रतमुपसंहारद्वारेण स्त्रीसङ्गपरिहारमाह - अब शास्त्रकार इस अध्ययन को समाप्त करते हुए स्त्री के साथ सङ्ग करने का त्याग बतलाते हैं एवं खु तासु विन्नप्पं, संथवं संवासं च वजेज्जा । तज्जाति इमे कामा, वज्जकरा य एवमक्खाए छाया - एवं खलु तासु विज्ञप्तं, संस्तवं संवासं च वर्जयेत् । तज्जाति का हमे कामा अवधकरा एवमाख्याताः ॥ ।।१९।। अन्वयार्थ - (तासु) स्त्रियों के विषय में ( एवं विन्नप्पं) इस प्रकार की बातें बतायी गयी हैं (संथवं संवासं च वजेज्जा) इसलिए साधु स्त्रियों के साथ परिचय और सहवास वर्जित करे ( तज्जातिय इमे कामा वज्जकरा एवमक्खाए) स्त्री के संसर्ग से उत्पन्न होनेवाला कामभोग पाप को उत्पन्न करता है, ऐसा तीर्थकरों ने कहा है । भावर्थ - स्त्री के विषय में पूर्वोक्त शिक्षा दी गयी इसलिए साधु स्त्री के साथ परिचय और सहवास न करे। स्त्री के संसर्ग से उत्पन्न होनेवाला कामभोग पाप को उत्पन्न करता है, ऐसा तीर्थकरों ने कहा है । टीका- 'एतत्' पूर्वोक्तं, खु शब्दो वाक्यालङ्कारे, तासु यत् स्थितं तासां वा स्त्रीणां सम्बन्धि यद् विज्ञप्तम्उक्तं, तद्यथा- यदि सकेशया मया सह न रमसे ततोऽहं केशानप्यपनयामीत्येवमादिकं, तथा स्त्रीभिः सार्धं 'संस्तवं ' परिचयं तत्संवासं च स्त्रीभिः सहैकत्र निवासं चात्महितमनुवर्तमानः सर्वापायभीरुः 'त्यजेत्' जह्यात्, यतस्ताभ्योरमणीभ्यो जातिः - उत्पत्तिर्येषां तेऽमी कामास्तज्जातिका - रमणीसम्पर्कोत्थास्तथा 'अवद्यं' पापं वज्रं वा गुरुत्वादधःपातकत्वेन पापमेव तत्करणशीला अवद्यकरा वज्रकरा वेत्येवम् 'आख्याताः ' तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादिता इति॥१९॥ टीकार्थ खु शब्द वाक्यालङ्कार में आया है। पहले यह कह दिया गया है कि स्त्रियों की रीति इस प्रकार की है तथा स्त्रियाँ जो साधु से प्रार्थना करती है कि मुझ केशवाली के साथ तुम्हारा चित्त नहीं लगता है तो मैं केशों को उखाड़ दूँ, यह सब भी कह दिया गया है, अतः अपने कल्याण की इच्छा करता हुआ तथा सब प्रकार के नाश से डरता हुआ पुरुष, स्त्रियों के साथ परिचय तथा उनके साथ एक जगह रहना त्याग देवे क्योंकि स्त्री २८९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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