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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १९-२० स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् सयं दुक्कडं च न वदति, आइट्ठोवि पकत्थति बाले । वेयाणुवीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो ॥१९॥ छाया - स्वयं दुष्कृतं च न वदति, आदिष्टोऽपि प्रकत्थते बालः । वेदानुवीचि मा कार्षीः चोधमानो ग्लायति स भूयः ॥ अन्वयार्थ - (बाले) अज्ञानी जीव (सयं दुक्कडं) स्वयं अपने पाप को (न वदति) नहीं कहता है (आइट्ठोवि पकत्थति) जब दूसरा कोई उसे उसका पाप कहने के लिए प्रेरणा करता है तब वह अपनी प्रशंसा करने लगता है (वेयाणुवीइ मा कासी) तुम मैथुन की इच्छा मत करो इस प्रकार आचार्य आदि के द्वारा (भुजो) बार-बार (चोइज्जतो) कहा जाता हुआ (से) वह कुशील (गिलाइ) ग्लानि को प्राप्त होता है। भावार्थ - द्रव्यलिङ्गी अज्ञानी पुरुष स्वयं अपना पाप अपने आचार्य से नहीं कहता है और दूसरे की प्रेरणा करने पर वह अपनी प्रशंसा करने लगता है। आचार्य आदि उसे बार-बार जब यह कहते हैं कि तुम मैथुन सेवन मत करो, तब वह ग्लानि को प्रास होता है। टीका - 'स्वयम्' आत्मना प्रच्छन्नं यदुष्कृतं कृतं तदपरेणाचार्यादिना पृष्टो न वदति' न कथयति, यथा अहमस्याकार्यस्य कारीति, स च प्रच्छन्नपापो मायावी स्वयमवदन् यदा परेण 'आदिष्टः' चोदितोऽपि सन् 'बालः' अज्ञो रागद्वेषकलितो वा 'प्रकत्थते' आत्मानं श्लाघमानोऽकार्यमपलपति, वदति च - यथाऽहमेवम्भूतमकार्यं कथं करिष्ये इत्येवं धायात्प्रकत्थते, तथा - वेदः - पुंवेदोदयस्तस्य 'अनुवीचि' आनुकूल्यं मैथुनाभिलाषं तन्मा कार्षीरित्येवं 'भूयः' पुनः चोद्यमानोऽसौ 'ग्लायति' ग्लानिमुपयाति - अकर्णश्रुतं विधत्ते, मर्मविद्धो वा सखेदमिव भाषते, तथा चोक्तम् - सम्भाव्यमानपापोऽहमपापेनापि किं मया? | निर्विषच्यापि सर्पस्य, भृशमुद्धिजते जनः ||१|| इति ॥१९॥ अपि च - टीकार्थ - कुशील पुरुष अपने किये हुए प्रच्छन्न पाप को आचार्य आदि के पूछने पर नहीं कहता है कि मैंने अमुक बुरा कार्य किया है। वह प्रच्छन्नपापी मायावी स्वयं तो कहता नहीं और जब दूसरा कोई उसे कहने के लिए कहता है तो वह अज्ञानी अथवा रागद्वेषयुक्त पुरुष अपनी प्रशंसा करता हुआ अपने बुरे कार्य को झूठा बतलाता है । वह कहता है कि - मैं ऐसा अनुचित कार्य कैसे कर सकता हूं, इस प्रकार वह धृष्टता के कारण कहता है । यहां वेद शब्द से पुरुषवेद का उदय लेना चाहिए, उसके अनुकूल मैथुन की इच्छा अनुवीचि कहलाती है । अतः तुम मैथुन की इच्छा मत करो, इस प्रकार गुरु आदि के द्वारा बार-बार कहने से वह कुशील ग्लानि को प्राप्त होता है अथवा उस बात को नहीं सुनी जैसा कर देता है अथवा वह उस बात से मर्म स्थान में वेध पाया हुआ सा खेद युक्त होकर कहता है कि - मेरे में जब पाप की शङ्का की जाती है, तब मुझे पाप रहित होने से भी क्या लाभ? क्योंकि निर्विष सर्प से भी लोग बहुत डरते हैं ॥१९॥ ओसियावि इत्थिपोसेसु, पुरिसा इत्थिवेयखेदना । पण्णासमन्निता वेगे, नारीणं वसं उवकसंति ॥२०॥ छाया - उषिता अपि नीपोषेषु पुरुषाः स्त्रीवेदखेदहाः । प्रज्ञासमन्विता एके नारीणां वशमुपकषन्ति ॥ अन्वयार्थ - (इत्थिपोसेसु उसियावि पुरिसा) जो पुरुष स्त्रियों का पोषण कर चुके हैं (इत्थिवेयखेदत्रा) अत एव स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न होनेवाले खेदों के ज्ञाता हैं (पण्णासमन्निता) एवं प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि से युक्त हैं (वेगे) ऐसे भी कोई (नारीणं वसं उवकसंति) स्त्रियों के वशीभूत हो | जाते हैं। २EE
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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