SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा १८ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् मार्ग का आचरण करना आरम्भ किया है, यही मार्ग सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि इस मार्ग से प्रवृत्ति करनेवाले पुरुष की प्रव्रज्या अच्छी तरह पाली जाती है । परन्तु यह उन कुशीलों के वाणी का वीर्य समझना चाहिए, अनुष्ठान का नहीं क्योंकि वे द्रव्यलिङ्गी पुरुष वचनमात्र से अपने को प्रव्रजित कहते हैं परन्तु उनमें उत्तम अनुष्ठान का वीर्य नहीं है क्योंकि वे साता गौरव और विषय सुख में आसक्त तथा शिथिल विहारी हैं ॥१७॥ सुद्धं रवति परिसाए, अह रहस्संमि दुक्कडं करेंति । जाणंति य णं तहाविहा, माइल्ले महासढेऽयं ति ।।१८।। छाया - शुद्धं रोति परिषदि, अथ रहसि दुष्कृतं करोति । जानन्ति च तथाविदो मायावी महाशठ इति ॥ अन्वयार्थ - (परिसाए) वह कुशील पुरुष सभा में (सुद्धं रवति) अपने को शुद्ध बतलाता है ( अह रहस्संमि) परन्तु एकान्त में ( दुक्कडं करेंति) पाप करता है । ( तहाविहा) ऐसे लोगों को अंगचेष्टा का ज्ञान रखनेवाले पुरुष ( जाणंति) जान लेते हैं कि ( माइल्ले महासढेऽयं ति) ये मायावी और महाशठ हैं । भावार्थ - कुशील पुरुष सभा में अपने को शुद्ध बतलाता है परन्तु छिपकर पाप करता है। इनकी अंगचेष्टा आदि का ज्ञान रखनेवाले लोग जान लेते हैं कि ये मायावी और महान् शठ है । टीका स कुशीलो वाङ्मात्रेणाविष्कृतवीर्यः 'पर्षदि' व्यवस्थितो धर्मदेशनावसरे सत्यात्मानं 'शुद्धम्' अपगतदोषमात्मानमात्मीयानुष्ठानं वा 'रौति' भाषते, अथानन्तरं 'रहस्ये' एकान्ते 'दुष्कृतं 'करोति' विदधाति, तच्च तस्यासदनुष्ठानं गोपायतोऽपि 'जानन्ति' विदन्ति, के? 1 तथाविदः इङ्गिताकारकुशला निपुणास्तद्विद इत्यर्थः यदिवा सर्वज्ञाः, एतदुक्तं भवति न वेत्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति, तत्परिज्ञानेनैव किं न पर्याप्तं ?, यदिवा - मायावी महाशठश्चायमित्येवं तथाविदस्तद्विदो जानन्ति, तथाहि - प्रच्छन्नाकार्यकारी न मां कश्चिज्जानात्येवं रागान्धो मन्यते, अथ च तं तद्विदो विदन्ति, तथा चोक्तम् पापं तत्कारणं वाऽसदनुष्ठानं तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति यद्यप्यपरः कश्चिदकर्तव्यं तेषां न 22 लोणं लोणिज्जइ ण य तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा । किह सको वंचेउं अत्ता अणुहूयकलाणी ||१|| ॥१८॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ - वह कुशील वचन मात्र से अपने वीर्य को प्रकट करता हुआ धर्मोपदेश के समय सभा में बैठकर अपने को तथा अपने अनुष्ठान को दोष रहित शुद्ध बतलाता है परन्तु पीछे से छिपकर एकान्त में पाप अथवा पापजनक असत् अनुष्ठान करता है । यद्यपि वह अपने उस असत् अनुष्ठान को छिपाता है तो भी लोग जान लेते हैं। कौन जान लेते हैं? कहते हैं कि उस प्रकार के अनुष्ठान को जाननेवाले जो पुरुष अंगचेष्टा और आकार को जानने में निपुण हैं, वे उसके असत् अनुष्ठान को जान लेते हैं । अथवा सर्वज्ञ पुरुष उसके उस अनुष्ठान को जान लेते हैं । भाव यह है कि उस कुशील पुरुष के अकर्त्तव्य को दूसरा चाहे न जाने परन्तु सर्वज्ञ पुरुष तो जान ही लेते हैं। क्या सर्वज्ञ पुरुष का जान लेना जाना जाना नहीं है? अथवा जिसके असत् अनुष्ठान को जाननेवाले पुरुष जानते हैं कि यह मायावी और महा शठ है । रागान्ध पुरुष छिपकर असत् अनुष्ठान करता है और मन में समझता है कि मुझ को कोई जानता नहीं है परन्तु उसे जाननेवाले जान लेते हैं । कहा है ( न य लोणं) अर्थात् जैसे नमक का खारापन और तेल, घृत का चिकनापन छिपाया नहीं जा सकता । इसी तरह बुरा कर्म करनेवाला आत्मा छिपाया नहीं जा सकता है ||१८|| 1. वेदा प्र० । 2. न च लवणं लयणीयते न प्रक्ष्यते घृतं च तैलं च । किं शक्यो वञ्चयितुमात्माऽनुभूताकल्याणः ।। 3. सक्का प्र० । २६५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy