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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा २० स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् भावार्थ - स्त्री को पोषण करने के लिए पुरुष को जो-जो व्यापार करने पड़ते हैं, उनका सम्पादन करके जो पुरुष भुक्तभोगी हो चुके हैं तथा स्त्री जाति मायाप्रधान होती है, यह भी जो जानते हैं तथा औत्पातिकी आदि बुद्धि से जो युक्त हैं। ऐसे भी कोई पुरुष स्त्रियों के वश में हो जाते हैं। टीका - स्त्रियं पोषयन्तीति स्त्रीपोषका - अनुष्ठानविशेषास्तेषु 'उषिता अपि' व्यवस्थिता अपि 'पुरुषा' मनुष्या भुक्तभोगिनोऽपीत्यर्थः, तथा - 'स्त्रीवेदखेदज्ञाः स्त्रीवेदो मायाप्रधान इत्येवं निपुणा अपि, तथा प्रज्ञया औत्पात्तिक्यादिबुड्या समन्विता - युक्ता अपि, 'एके' महामोहान्धचेतसो 'नारीणां' स्त्रीणां संसारावतरणवीथीनां 'वशं' तदायत्ततामुप - सामीप्येन 'कषन्ति' व्रजन्ति, यद्यत्ताः स्वप्नायमाना अपि कार्यमकार्य वा ब्रुवते तत्तत्कुर्वते, न पुनरेतज्जानन्ति, यथैता एवम्भूता भवन्तीति, तद्यथा - एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतोर्विवासयन्ति च नरं न च विश्वसन्ति । तरमावरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः ||१|| तथा - समुद्रवीचीव चलस्वभावाः, सन्ध्याभ्ररेखेव मुहूर्तरागाः । लियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं, निष्पीडितालककवन्यजन्ति ॥२॥ अत्र च स्त्रीस्वभावपरिज्ञाने कथानकमिदम् - तद्यथा - एको युवा स्वगृहानिर्गत्य वैशिकं कामशास्त्रमध्येतुं पाटलिपुत्रं प्रस्थितः, तदन्तराले अन्यतरग्रामवर्तिन्यैकया योषिताभिहितः, तद्यथा - सुकुमारपाणिपादः शोभनाकृतिस्त्वं क्व प्रस्थितोऽसि? तेनापि यथास्थितमेव तस्याः कथितं तया चोक्तम् - वैशिकं पठित्वा मम मध्येनागन्तव्यं, तेनापि तथैवाभ्युपगतम्, अधीत्य चासौ मध्येनायातः, तया च स्नानभोजनादिना सम्यगुपचरितो विविधहावभावैश्चापहतहृदयः संस्तां हस्तेन गृह्णाति, ततस्तया महताशब्देन पूत्कृत्य जनागमनावसरे मस्तके वारिवर्धनिका प्रक्षिप्ता, ततो लोकस्य समाकुले एवमाचष्टे - यथाऽयं गले लग्नेनोदकेन मनाक् न मृतः, ततो मयोदकेन सिक्त इति । गते च लोके सा पृष्टवती - किं त्वया वैशिकशास्त्रोपदेशेन स्त्रीस्वभावानां परिज्ञातमिति? एवं स्त्रीचरित्रं दुर्विज्ञेयमिति नात्रास्था कर्तव्येति, तथा चोक्तम् - हृद्यन्यद्वाच्यन्यत्कर्मण्यन्यत्पुरोऽथ पृष्ठेऽन्यत् । अन्यत्तव मम चान्यत् छीणां सर्व किमप्यन्यत् ||१|| ||Poll टीकार्थ - जो व्यापार स्त्री को पोषण करने के लिए किये जाते हैं, उन्हें स्त्रीपोषक कहते हैं। उन स्त्रीपोषक व्यापारों के अनुष्ठान में जो प्रवृत्त रह चुके हैं, अत एव स्त्री रक्षण करने के दोषों को जो जान गये हैं तथा जो स्त्रीवेद के खेद को जाननेवाले हैं अर्थात् स्त्रीवेद मायाप्रधान होता है, यह जानने में जो निपुण हैं एवं औत्पातिकी आदि बुद्धि से जो युक्त हैं, ऐसे भी कोई पुरुष महामोह से अंधे होकर संसार में उतरने के लिए मार्ग स्वरूप स्त्रियों के वश में हो जाते हैं । स्त्रीयां स्वप्न में बड़ बड़ाती हुई भी भला या बुरा जो कार्य करने के लिए उनसे कहती हैं, वे उसे करते हैं । वे यह नहीं सोचते हैं कि स्त्रियां इस प्रकार की होती हैं, जैसे कि - स्त्रियां, कार्य के लिए हंसती हैं और रोती हैं, पुरुष को विश्वास देती हैं परन्तु स्वयं उस पर विश्वास नहीं करती। अतःकुल और शील से युक्त पुरुष, श्मशान के घड़े के समान स्त्रियों को वर्जित कर दें । तथा समद्र की तरंग जिस प्रकार चंचल होती हैं, उसी तरह स्त्रियां चंचल स्वभाव की होती हैं, जैसे संध्याकाल के मेघ में थोड़ी देर तक राग रहता है, इसी तरह स्त्रियों को भी थोड़ी देर तक राग रहता है। स्त्रियां जब अपना प्रयोजन पुरुष से सिद्ध कर लेती हैं तब जैसे महावर का रंग निकालकर उसकी रूई को फेंक देते हैं, उसी तरह वे पुरुष को त्याग देती है। 1. स्त्रियः प्र०। २६७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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