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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा ७-८ उपसर्गाधिकारः इस प्रकार सुभट पुरुषों का दृष्टान्त बताकर अब शास्त्रकार दार्टान्त बतलाते हैं - एवं समुट्ठिए भिक्खू, वोसिज्जाऽगारबंधणं । आरम्भ तिरियं कट्ट, अत्तत्ताए परिव्वए ॥७॥ छाया - एवं समुत्थितो भिक्षुः व्युत्सृज्यागारबन्धनम् । भारम्भ तिर्यक् कृत्वा, आत्मत्वाय परिव्रजेत् ॥ अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (अगारबंधणं) गृहबन्धन को (वोसिञ्जा) त्यागकर (आरम्भं) तथा आरम्भ को (तिरियं कट्ट) छोड़कर (समुट्ठिए) संयम पालन के लिए ऊठा हुआ (भिक्खू) साधु (अत्तत्ताए) मोक्ष प्राप्ति के लिए (परिव्वए) संयम का अनुष्ठान करे । भावार्थ - जो साधु, गृहबन्धन को त्याग तथा सावध अनुष्ठान को छोड़कर संयम पालन करने के लिए तत्पर हुआ है, वह मोक्ष प्राति के लिए शुद्ध संयम का अनुष्ठान करे । ___टीका - यथा सुभटा ज्ञाता नामतः कुलतः शौर्यतः शिक्षातश्च तथा सन्नद्धबद्धपरिकराः करगृहीतहेतयः प्रतिभटसमितिभेदिनो न पृष्ठतोऽवलोकयन्ति, एवं 'भिक्षुरपि' साधुरपि महासत्त्वः परलोकप्रतिस्पर्द्धिनमिन्द्रिय-कषायादिकमरिवर्ग जेतुं सम्यक्संयमोत्थानेनोत्थितः समुत्थितः, तथा चोक्तम् - 'कोहं माणं च मायं च, लोहं पश्चिन्दियाणि य । दुज्जयं चेवमप्पाणं, सलमप्पे जिए जियं ।।१।। किं कृत्वा समुत्थित इति दर्शयति - 'व्युत्सृज्य' त्यक्त्वा 'अगारबंधनं' गृहपाशं तथा 'आरम्भं' सावद्यानुष्ठानरूपं 'तिर्यक्कृत्वा' 2अपहस्त्य आत्मनो भाव आत्मत्वम् - अशेषकर्मकलङ्करहितत्वं तस्मै आत्मत्वाय, यदिवा - आत्मा - मोक्षः संयमो वा तद्भावस्तस्मै - तदर्थं परिसमन्ताव्रजेत् - संयमानुष्ठानक्रियायां दत्तावधानो भवेदित्यर्थः ॥७॥ टीकार्थ - नाम, कुल, शूरता और शिक्षा के द्वारा जगत्प्रसिद्ध तथा शत्रु की सेना का भेदन करनेवाले उत्तम वीर पुरुष हाथ में शस्त्र लेकर जब युद्ध के लिए तैयार होते हैं, तब वे जैसे पीछे की ओर नहीं देखते, उसी तरह महापराक्रमी साधु भी परलोक को नष्ट करने वाले इन्द्रिय और कषाय आदि शत्रुओं पर विजय करने के लिए जब संयम भार को लेकर उत्थित होते हैं, तब वे पीछे की ओर नहीं देखते । कहा भी है (कोह) अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ और पांच इन्द्रियाँ ये मनुष्यों से दुर्जय हैं, अतः एक अपने आत्मा को जीत लेने पर वे सभी जीत लिये जाते हैं । वह साधु क्या करके ऊठा है सो शास्त्रकार दिखलाते हैं - वह साधु गृहवास को छोड़कर तथा सावध अनुष्ठान रूप आरंभ को त्यागकर संयम पालन करने के लिए ऊठा है। आत्मा के भाव को आत्मत्व कहते हैं। उस आत्मत्व के लिए साधु को सावधान होकर रहना चाहिए । अथवा आत्मत्व नाम मोक्ष या संयम का है। अतः साधु को मोक्ष प्राप्ति अथवा संयम पालन के लिए चारों तरफ से प्रवृत्त हो जाना चाहिए। साधु को संयम के अनुष्ठान रूप क्रिया में खूब सावधान रहना चाहिए, यह अर्थ है ॥७॥ - निर्युक्तौ यदिभिहितमध्यात्मविषीदनं तदुक्तम्, इदानीं परवादिवचनं द्वितीयमर्थाधिकारमधिकृत्याह - नियुक्ति में कहा जा चुका है कि संयम धारण करने के पश्चात् कायर पुरुष के चित्त में विषाद उत्पन्न होता है। वह किस प्रकार होता है? सो पर्व की गाथाओं मे कहा जा चुका है। अब साधुओं के विषय में अन्यतीर्थी लोग क्या कहते हैं । इस दूसरे अर्थाधिकार के विषय में शास्त्रकार कहते हैं - तमेगे परिभासंति, भिक्खूयं साहुजीविणं । जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए ॥८॥ 1. क्रोधः मानश्च माया च लोभः पञ्चेन्द्रियाणि च । दुर्जयं चैवात्मनां सर्वमात्मनि जिते जितम् ।।१॥ 2. हस्तयित्वा प्र.। 3. परिवादि. प्र. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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