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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकेः गाथा ६ उपसर्गाधिकारः नहीं मिलता तथा भोजन का समय बीत जाने पर मिलता है और वह भी नीरस मिलता है । एवं प्रव्रजित पुरुष को भूमि पर शयन करना पड़ता है तथा लोच करना और स्नान न करना और ब्रह्मचर्य धारण करना पड़ता है। अतः इन कठिन क्रियाओं को देखकर अपनी प्रव्रज्या को अंत तक निर्वाह कर सकने के विषय में कोई प्रव्रजित संशय करते हैं। जैसे मार्ग का, विवेकरहित पुरुष यह संशय करता है कि यह मार्ग, जिस स्थान पर जाना है वहां जाता है या नहीं? और वह चंचलचित्त होता है। इसी तरह स्वयं ने लिये हुए संयम भार को अन्त तक वहन कर सकने के विषय में संशय करनेवाले कोई कायर प्रव्रजित, निमित्तशास्त्र तथा गणित आदि शास्त्रों पर अपनी जीविका की आशा रखते हैं ॥५॥ साम्प्रतं महापुरुषचेष्टिते दृष्टान्तमाह - अब शास्त्रकार महापुरुषों की चेष्टा के विषय में दृष्टान्त बलताते हैं । जे उ संगामकालंमि, नाया सूरपुरंगमा । णो ते पिट्ठमुवेहिंति, किं परं मरणं सिया ? ॥६॥ छाया - ये तु सङ्ग्रामकाले ज्ञाताः शूरपुरङ्गमाः । नो ते पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते, किं परं मरणं स्यात् ॥ अन्वयार्थ - (उ) परन्तु (जे) जो पुरुष (नाया) जगत् प्रसिद्ध (सूरपुरंगमा) वीरों में अग्रगण्य हैं (ते) वे (संगामकालंमि) युद्ध का समय आने पर (णो पिट्ठमुवेहिति) पीछे की बात पर ध्यान नहीं देते हैं, वे समझते हैं कि (किं परं मरणं सिया) मरण से भिन्न दूसरा क्या हो सकता है? भावार्थ - जो पुरुष संसार में प्रसिद्ध तथा वीरों में अग्रेसर हैं, वे युद्ध के अवसर में यह नहीं सोचते हैं कि विपत्ति के समय मेरा बचाव कैसे होगा? वे समझते हैं कि मरण से भिन्न दूसरा क्या हो सकता है? टीका - ये पुनर्महासत्त्वाः, तुशब्दो विशेषणार्थः 'सङ्ग्रामकाले' परानीकयुद्धावसरे 'ज्ञाताः' लोकविदिताः, कथम्? 'शूरपुरङ्गमाः' शूराणामग्रगामिनो युद्धावसरे सैन्याग्रस्कन्धवर्तिन इति, त एवम्भूताः सङ्ग्रामं प्रविशन्तो 'न पृष्ठमत्प्रेक्षन्ते' न दर्गादिकमापत्त्राणाय पर्यालोचयन्ति, ते चाभङ्गकृतबद्धयः, अपि त्वेवं मन्यन्ते - किमपरमत्रास्माक भविष्यति?, यदि परं मरणं स्यात्, तच्च शाश्वतं यशःप्रवाहमिच्छतामस्माकं स्तोकं वर्तत इति, तथा चोक्तम् - विशरारुभिरविनश्वरमपि चपलैः स्थास्नु वाञ्छतां विशदम् । प्राणैर्यदि शूराणां भवति यशः किं न पर्याप्तम्? ||१||||६|| टीकार्थ - यहां 'त' शब्द पर्वोक्त कायर परुष से इस गाथा में कहे जानेवाले शर परुष की विशेषता बताने के लिए आया है। जो पुरुष महापराक्रमी है, जो शत्रुसेना के साथ युद्ध करने में लोकप्रसिद्ध है तथा जो युद्ध के समय सेना में आगे रहते हैं वे, युद्ध के समय पीछे होनेवाली बात का ख्याल नहीं करते अर्थात् वे विपत्ति के समय अपनी रक्षा करने के लिए किसी दुर्ग आदि का विचार नहीं करते क्योंकि युद्ध से भागने का विचार उनका होता ही नहीं। वे समझते हैं कि इस युद्ध आदि में अधिक से अधिक हानि हो तो यही हो सकता है कि मरण होगा परंतु वह मरण निरंतर रहनेवाली कीर्ति की इच्छा करने वाले हमारे लिए एक तुच्छ वस्तु है । कहा भी है (विशरारुभिः) अर्थात् मनुष्यों का प्राण नश्वर और चंचल है, उसे देकर अनश्वर, स्थिर और शुद्ध यश को लेने की इच्छा करनेवाले वीरों को यदि प्राण के बदले यश मिलता है, तो क्या वह प्राण की अपेक्षा अधिक मूल्यवान् नहीं है? ॥६॥ तदेवं सुभटदृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्टान्तिकमाह - २१२
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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