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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकेः गाथा ९ उपसर्गाधिकारः छाया - तमेके परिभाषन्ते, भिक्षुकं साधुजीविनम् । य एवं परिभाषन्ते, अन्तके ते समाधेः ॥ अन्वयार्थ - (साहुजीविणं) उत्तम आचार से जीवन निर्वाह करनेवाले (तं) उस (भिक्खूयं) साधु के विषय में (एगे) कोई अन्यदर्शनी (परिभासंति) आगे कहा जानेवाला आक्षेप वचन कहते हैं (जे एवं परिभासंति) परन्तु जो इस प्रकार आक्षेप युक्त वचन कहते हैं (ते) वे (समाहिए) समाधि से (अंतए) दूर हैं। भावार्थ - उत्तम आचार से अपना जीवन निर्वाह करने वाले साधु के विषय में कोई अन्यतीर्थी आगे कहे जानेवाले आक्षेप वचन कहते हैं परन्तु जो इस प्रकार आक्षेप वचन कहते हैं, वे समाधि से दूर हैं। टीका - त' मिति साधुम् ‘एके' ये परस्परोपकाररहितं दर्शनमापन्ना अयःशलाकाकल्पाः, ते च गोशालकमतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा वा, त एवं वक्ष्यमाणं परिसमन्ताद्वाषन्ते । तं भिक्षुकं साध्वाचारं साधु-शोभनं परोपकारपूर्वकं जीवितुं शीलमस्य स साधुजीविनमिति, 'ये' ते अपुष्टधर्माण ‘एवं' वक्ष्यमाण 'परिभाषन्ते' साध्वाचारनिन्दां विदधति, त एवंभूता 'अन्तके' पर्यन्ते दूरे 'समाधेः' मोक्षाख्यात्सम्यग्ध्यानात्सदनुष्ठानात् वा वर्तन्त इति ॥८॥ टीकार्थ - जैसे लोहे की शलाकायें आपस में नहीं मिलती किन्त अलग अलग रहती हैं. इसी तरह अलग विचरने वाले, जिसमें एक दूसरे का उपकार करना नहीं कहा है । ऐसे दर्शन को मानने वाले, कोई गोशालकमतानुयायी अथवा दिगम्बर मतवाले, उत्तम आचार वाले और परोपकार के साथ जीवन निर्वाह करनेवाले साधुओं के विषय में आगे कहे अनुसार आक्षेपयुक्त वचन कहते हैं । साधुओं के विषय में आगे कहे अनुसार जो आक्षेप युक्त वचन कहते हैं अर्थात् जो साधुओं के आचार की निन्दा करते हैं । उनका धर्म पुष्ट नहीं है तथा वे समाधि अर्थात् मोक्ष रूप सम्यग् ध्यान से अथवा उत्तम अनुष्ठान से दूर हैं ॥८॥ यत्ते प्रभाषन्ते तद्दर्शयितुमाह - वे अन्यतीर्थी जो आक्षेप वचन कहते हैं उसे शास्त्रकार दिखाते हैं । संबद्धसमकप्पा उ, अन्नमन्नेसु मुच्छिया । पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य ॥९॥ छाया - सम्बद्धसमकल्पास्तु, अन्योऽव्येषु मूर्छिताः । पिण्डपातं ग्लानस्य, यत्सारयत ददध्वं च ॥ अन्वयार्थ - (सम्बद्धसमकप्पा) ये लोग गृहस्थ के समान व्यवहार करते हैं (अत्रमन्नेसु मुच्छिया) ये परस्पर एक दूसरे में आसक्त रहते हैं। (गिलाणस्स) रोगी साधु को (पिण्डवायं) भोजन (सारेह) लाते हैं (य) और (दलाह) देते हैं। भावार्थ - अन्यतीर्थी सम्यग्दृष्टि साधुओं के विषय में यह आक्षेप करते हैं कि इन साधुओं का व्यवहार गृहस्थों के समान है, जैसे गृहस्थ अपने कुटुम्ब में आसक्त रहते हैं, वैसे ही ये साधु भी परस्पर आसक्त रहते हैं, तथा रोगी साधु के लिए ये लोग आहार लाकर देते हैं। टीका - सम् - एकीभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च 'बद्धाः' पुत्रकलत्रादिस्नेहपाशैः सम्बद्धा - गृहस्थास्तैः समः - तुल्यः कल्पो - व्यवहारोऽनुष्ठानं येषान्ते सम्बद्धसमकल्पा - गृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्ठाना इत्यर्थः, तथाहि - यथा गृहस्थाः परस्परोपकारेण माता पुत्रे पुत्रोऽपि मात्रादावित्येवं 'मूर्च्छिता' अध्युपपन्नाः, एवं भवन्तोऽपि 'अन्योऽन्यं' परस्परतः शिष्याचार्याधुपकारक्रियाकल्पनया मूर्छिताः, तथाहि - गृहस्थानामयं न्यायो यदुत परस्मै दानादिनोपकार इति न तु यतीनां, कथमन्योऽन्यं मूर्च्छिता इति दर्शयति - 'पिण्डपातं' भैक्ष्यं 'ग्लानस्य' अपरस्य रोगिणः साधोः यद्-यस्मात् 'सारेह'त्ति 'अन्वेषयत, तथा 'दलाहय'त्ति ग्लानयोग्यमाहारमन्विष्य तदुपकारार्थं ददध्वं, चशब्दादाचार्यादेर्वैयावृत्त्यकरणाद्युपकारेण वर्तध्वं, ततो गृहस्थसमकल्पा इति ॥९॥ 1. अन्वेषयस्ते प्र. २१४
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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