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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा २० मानपरित्यागाधिकारः वा भयानकां वा 'प्रसह्य' प्रकटमेव वाचं ब्रुवतः सतः 'अर्थो' मोक्षः तत्कारणभूतो वा संयमः स बहु 'परिहीयते' ध्वंसमुपयाति, इदमुक्तं भवति-बहुना कालेन यदर्जितं विप्रकृष्टेन तपसा महत्पुण्यं तत्कलहं कुर्वतः परोपघातिनी च वाचं ब्रुवतः तत्क्षणमेव ध्वंसमुपयाति, तथा हि"जं अज्जियं समीखल्लएहिं तवनियमबंभमइएहिं । मा हु तयं कलहंता छड्डे अह सागपत्तेहिं ।।१।।" इत्येवं मत्वा मनागप्यधिकरणं न कुर्यात् 'पण्डितः' सदसद्विवेकीति ॥१९॥ तथा - टीकार्थ - अधिकरण नाम कलह का है। उसे करने का जिसका स्वभाव है उसे "अधिकरणकर" कहते हैं। जो साधु कलह करनेवाला है और जिससे कलह उत्पन्न हो ऐसी दारुण अथवा भयंकर वाणी प्रकट ही बोलता है, उसका मोक्ष अथवा मोक्ष का कारण संयम बहुत नष्ट हो जाता है । आशय यह है कि जो कलह करता है सरे के चित्त को दुःखानेवाली वाणी बोलता है, उसका बहुत काल के द्वारा कठिन तपस्या से उपार्जित पुण्य तत्क्षण नाश होता है, क्योंकि तप, नियम और ब्रह्मचर्य वास के द्वारा जो पुण्य उपार्जन किया है । उसे कलह कर के नाश मत करो ऐसा पण्डितजन उपदेश करते हैं । अतः सत् और असत का विवेक रखनेवाला पण्डित पुरुष, स्वल्प भी कलह न करे ॥१९॥ Aof सीओदगपडिदुगुंछिणो, अपडिण्णस्स लवावसप्पिणो । सामाइयमाहु तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुंजती ॥२०॥ छाया - शीतोदकप्रतिजुगुप्सकस्य, अप्रतिज्ञस्य लवावसर्पिणः । सामायिकमाहुस्तस्य यत् यो गृहमात्रेऽशनं न भुक्ते ॥ व्याकरण - (सीओदगपडिदुगुंछिणो) साधु का विशेषण (अपडिण्णस्स) साधु का विशेषण (लवावसप्पिणो) साधु का विशेषण (तस्स) साधु का परामर्शक सर्वनाम षष्ठ्यन्त पद (सामाइयं) कर्म (आहु) क्रिया (जो) कर्ता (गिहिमत्ते) अधिकरण (न) अव्यय (भुंजती) क्रिया। अन्वयार्थ - (सीओदगपडिदुगुंछिणो) जो साधु कच्चे पानी से घृणा करता है (अपडिण्णस्स) तथा किसी प्रकार की प्रतिज्ञा यानी कामना नहीं करता है (लवावसप्पिणो) एवं जो कर्मबन्ध को उत्पन्न करनेवाले कर्मों के अनुष्ठान से दूर रहता है (तस्स) उस साधु का सर्वज्ञों ने (सामाइयं) समभाव (आह) कहा है तथा (जो) जो साधु (गिहिमत्ते) गृहस्थ के पात्र में (असणं) आहार (ण मुंजती) नहीं खाता है उसका समभाव है। भावार्थ - जो साधु कच्चे पानी से घृणा करता है और किसी प्रकार की कामना नहीं करता है तथा कर्मबन्धन देनेवाले कार्यों का त्याग करता है, सर्वज्ञ पुरुषों ने उस साधु का समभाव कहा है तथा जो साधु गृहस्थों के पात्र में आहार नहीं खाता है उसका भी सर्वज्ञों ने समभाव कहा है। टीका - शीतोदकम् अप्रासुकोदकं तत्प्रतिजुगुप्सकस्याप्रासुकोदकपरिहारिणः साधोः, न विद्यते प्रतिज्ञा निदानरूपा यस्य सोऽप्रतिज्ञोऽनिदान इत्यर्थः, लवं-कर्म तस्मात् अवसप्पिणोत्ति-अवसर्पिणः, यदनुष्ठानं कर्मबन्धो तत्परिहारिण इत्यर्थः, तस्यैवम्भूतस्य साधोयेस्मात् यत् 'सामायिंक' समभावलक्षणमाहुः सर्वज्ञाः, यश्च साधुः 'गृहमात्रे' गृहस्थभाजने कांस्यपात्रादौ न भुङ्क्ते तस्य च सामायिकमाहुरिति संबन्धनीयमिति ॥२०॥ किञ्च ___टीकार्थ - जो साधु अप्रासुक जल से घृणा करता है अर्थात् अप्रासुक जल को नहीं पीता है और प्रतिज्ञा यानी निदान नहीं करता है तथा लव नाम कर्म का है उससे जो अलग रहता है अर्थात् जो अनुष्ठान कर्मबन्धन का कारण है, उसका जो त्याग करता है, ऐसे साधु का सर्वज्ञों ने समभाव रूप सामायिक कहा है तथा जो साधु, गृहस्थ के पात्र यानी कांस्य पात्र आदि में भोजन नहीं करता है । उसका भी सर्वज्ञों ने समभाव रूप सामायिक कहा है, यह सम्बन्ध कर लेना चाहिए ॥२०॥ 1. यदर्जितं कष्टैः (शमीपत्रैः) तपोनियमब्रह्मचर्यमयैः । मा तत् कलहयन्तः त्याष्ट शाकपत्रैः। 2. नीओद पडि०। 3. सक्कि० चू.। 4. भक्खति० चू. । १४९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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