SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा २१ - २२ ण य संखयमाहु जीवियं, तहवि य बालजणो पगब्भइ । बाले पापेहिं मिज्जती, इति संखाय मुणी ण मज्जती छाया - न च संस्कार्य्यमाहुर्जीवितं तथाऽपि च बालजनः प्रगल्भते । बालः पापैर्मीयते इति संख्याय मुनिर्न माद्यति ॥ व्याकरण - (जीवियं) कर्म ( संखयं) जीवन का विधेय विशेषण (ण, य) अव्यय (आहु) क्रिया ( तहवि य) अव्यय (बालजणो) कर्ता (पगब्मइ) क्रिया (बाले) उक्त कर्म (पापेहिं) कर्तृतृतीयान्त (मिज्जती) क्रिया (इति) अव्यय (संखाय) पूर्वकालिक क्रिया (मुणी) कर्ता (मज्जती) क्रिया । अन्वयार्थ - (जीवियं) प्राणियों का जीवन, ( ण य संखयमाहु) संस्कार करने (जोड़ने) योग्य नहीं कहा है ( तहवि य) तथापि (बालजणो) मूर्खजन (पगब्मइ) पाप करने में धृष्टता करते हैं (बाले) ये अज्ञ जीव (पापेहिं) पापी कहकर (मिज्जती) बताये जाते हैं (इति) यह ( संखाय ) जानकर (मुणी ) मुनि (ण मज्जती) मद नहीं करते हैं । भावार्थ - टूटा हुआ मनुष्यों का जीवन फिर जोड़ा नहीं जा सकता है, यह सर्वज्ञों ने कहा है तथापि मूर्ख जीव, पाप करने में धृष्टता करता है । वह अज्ञ पुरुष, पापी समझा जाता है, यह जानकर मुनि, मद नहीं करते हैं । मानपरित्यागाधिकारः टीका - न च नैव जीवितम् आयुष्कं कालपर्यायेण त्रुटितं सत् पुनः 'संखय' मिति संस्कर्तुं तन्तुवत्सन्धातुं शक्यते इत्येवमाहुस्तद्विदः, तथाऽपि एवमपि व्यवस्थिते 'बालः' अज्ञो जनः 'प्रगल्भते' पापं कुर्वन् धृष्टो भवति, असदनुष्ठानरतोऽपि न लज्जत इति, स चैवम्भूतो बालस्तैरसदनुष्ठानापादितैः 'पापैः' कर्मभिः 'मीयते' तद्युक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, भ्रियते वा मेयेन धान्यादिना प्रस्थकवदिति, एवं 'संख्याय' ज्ञात्वा 'मुनिः' च यथावस्थितपदार्थानां वेत्ता 'न माद्यतीति' तेष्वसदनुष्ठानेष्वहं शोभनः कर्त्तेत्येवं प्रगल्भमानो मदं न करोति ॥ २१ ॥ उपदेशान्तरमाह अब दूसरा उपदेश शास्त्रकार देते हैं - छंदेण 'पले इमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा । वियडेण पलिंति माहणे, 2 सीउण्हं वयसाऽहियासए ॥२१॥ टीकार्थ जीवन के रहस्य को जाननेवाले विद्वान् पुरुषों ने कहा है कि- "काल के पर्य्याय से टुटा हुआ प्राणियों का जीवन, टूटे हुए डोरे की तरह फिर जोड़ा नहीं जा सकता है ।" तथापि ( ऐसी दशा में भी) अज्ञ जन धृष्टता के साथ पाप करता है । वह असत् अनुष्ठान करता हुआ भी लज्जित नहीं होता है । वह अज्ञ जीव उन असत् अनुष्ठानों से उत्पन्न पापों के द्वारा "यह पापी है" ऐसा समझा जाता है । अथवा जैसे धान्य आदि के द्वारा 'प्रस्थक' कोठा भर दिया जाता है, उसी तरह वह पापों से भर दिया जाता है। यह जानकर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला मुनि, यह मद नहीं करते हैं कि- "इन असत् अनुष्ठान करनेवालों में मैं ही शोभन अनुष्ठान करनेवाला हूँ ।" मैं धर्मात्मा हूँ और अमुक मनुष्य पापी है, ऐसा अभिमान करना भी पाप है । अतः मुनि को अभिमान नहीं करना चाहिए ॥ २१॥ - - छाया - छन्दसा प्रलीयन्ते इमाः प्रजाः बहुमाया: मोहेन प्रावृताः । विकटेन प्रलीयते माहनः, शीतोष्णं वचसाऽधिसहेत ॥ ॥२२॥ व्याकरण - (छंदैण) हेतु तृतीयान्त (पले ) क्रिया (इमा ) प्रजा का विशेषण (पया) कर्ता (बहुमाया) प्रजा का विशेषण (मोहेण) कर्तृ तृतीयान्त (पाउडा ) प्रजा का विशेषण (वियडेण) हेतु तृतीयान्त (पलिंति) क्रिया (माहणे ) कर्ता (सीउण्हं) कर्म (वयसा) करण (अहियासए) क्रिया । अन्वयार्थ - (बहुमाया) बहुत माया करनेवाली (मोहेण ) मोह से (पाउडा ) आच्छादित (इमा ) ये (पया) प्रजाएँ (छन्देण) अपनी इच्छा से (पले) नरक आदि गति में जाती हैं (माहणे) परन्तु साधु पुरुष (वियडेण) कपट रहित कर्म के द्वारा (पलिति) मोक्ष में या संयम में लीन होता 1. पलेतिमा चू. । 2. सीयुण्हं चू. । १५०
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy