SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १८-१९ मानपरित्यागाधिकारः उसिणोदगतत्तभोइणो, धम्मट्ठियस्स मुणिस्स हीमतो। संसग्गि असाहु राइहिं, असमाही उ तहागयस्स वि । ॥१८॥ छाया - उष्णोदकतप्तभोजिनो धर्मस्थितस्य मुनेहींमतः । संसर्गोऽसाधूराजभिरसमाधिस्तु तथागतस्याऽपि ॥ व्याकरण - (उसिणोदगतत्तभोइणो) मुनि का विशेषण (धम्मट्ठियस्स) मुनि का विशेषण (हीमतो) मुनि का विशेषण (मुणिस्स) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (राइहिं) सहार्थक तृतीयान्त (संसग्गि) कर्ता (असाहु) संसर्ग का विधेय विशेषण (तहागयस्स) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (अवि) अव्यय (असमाही) कर्ता (उ) अव्यय । अन्वयार्थ - (उसिणोदगतत्तभोइणो) बिना ठंडा किये गरम जल पीनेवाले (धम्मट्ठियस्स) श्रुत और चारित्र धर्म में स्थित (हीमतो) असंयम से लज्जित होनेवाले (मुणिस्स) मुनि को (राइहिं) राजा आदि से (संसग्गि) संसर्ग करना (असाहु) बुरा है (तहागयस्सवि) वह शास्त्रोक्त आचार पालनेवाले का भी (असमाही) समाधि भंग करता है। भावार्थ - गरम जल को बिना ठंडा किये पीनेवाले, [श्रावक के वहाँ से जैसा मिला वैसा पीने वाले श्रुत और चारित्र धर्म में स्थित, असंयम से लज्जित होनेवाले मुनि को राजा, महाराजा आदि के साथ संसर्ग बुरा है, क्योंकि वह परिचय शास्त्रोक्त आचार पालनेवाले मुनि का भी समाधि भंग करता है। टीका - मुनेः 'उष्णोदकतप्तभोजिनः' त्रिदण्डोत्तोष्णोदकभोजिनः, यदि वा - उष्णं सन्न शीतीकुर्यादिति तप्तग्रहणं, तथा श्रुतचारित्राख्ये धर्मे स्थितस्य 'हीमतो'त्ति ह्री:-असंयमं प्रति लज्जा तद्वतोऽसंयमजुगुप्सावत इत्यर्थः, तस्यैवम्भूतस्य मुने राजादिभिः सार्धं यः 'संसर्गः' सम्बन्धोऽसावसाधुः अनर्थोदयहेतुत्वात् 'तथागतस्यापि' यथोक्तानुष्ठायिनोऽपि राजादिसंसर्गवशाद् 'असमाधिरेव' अपध्यानमेव स्यात्, न कदाचित् स्वाध्यायादिकम्भवेदिति ॥१८॥ टीकार्थ - जो मुनि, तीन बार जिसमें उकाला आ गया है, ऐसे गर्म जल को पीता है, अथवा गर्म जल को ठंडा किये बिना जो पीता है, यह बताने के लिए यहाँ 'तप्त' पद आया है । तथा श्रुत और चारित्र धर्म में जो स्थित है और असंयम से जिसको लज्जा आती है अर्थात् जो असंयम से घृणा रखता है, ऐसे मुनि का राजा आदि के साथ संसर्ग बुरा होता है, क्योंकि वह अनर्थ की उत्पत्ति का कारण है । जो साधु शास्त्रोक्त आचार का पालन करता है, उसका भी राजा आदि के संसर्ग से असमाधि यानी अपध्यान ही सम्भव है, कभी भी स्वाध्याय आदि सम्भव नहीं है। अतः राजादिसंसर्ग त्याज्य है ॥१८॥ साह । - परिहार्यदोषप्रदर्शनेन अधुनोपदेशाभिधित्सयाऽऽह - - त्याग करने योग्य दोषों को दिखाकर अब सूत्रकार उपदेश देने के लिए कहते हैं - 2अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं । अढे परिहायती बहु, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए ॥१९॥ छाया - अधिकरणकरस्य भिक्षोः वदतः प्रसह्य दारुणाम् । अर्थः परिहीयते बहु अधिकरणं न कुर्यात्पण्डितः।। व्याकरण - (अहिगरणकडस्स) भिक्षु का विशेषण (दारुणं) कर्म (वयमाणस्स) भिक्षु का विशेषण (भिक्खुणो) सम्बन्ध षष्ठयन्त पद (अट्ठे) कर्ता (बहु) क्रिया विशेषण (परिहायती) क्रिया (पंडिए) कर्ता (अहिगरण) कर्म (करेज्ज) क्रिया । अन्वयार्थ - (भिक्खुणो) जो साधु (अहिगरणकडस्स) कलह करता है (पसज्झ) और प्रकट रूप से (दारुण) भयानक वाक्य (वयमाणस्स) बोलता है (अढे) उसका मोक्ष अथवा संयम (बहु) अत्यन्त (परिहायती) नष्ट हो जाता है (पंडिए) इसलिए पण्डित साधु (अहिगरणं) कलह (न करेज्ज) न करे । भावार्थ - जो साधु कलह करनेवाला है और प्रकट ही भयानक वाक्य बोलता है। उसका मोक्ष अथवा संयम नष्ट हो जाता है, इसलिए पुरुष कलह न करे । टीका - अधिकरणं-कलहस्तत्करोति तच्छीलश्चेत्यधिकरणकरः तस्यैवम्भूत भिक्षोस्तथाधिकरणकरी दारुणां 1. ह्रीमतो चू. | 2. अधिकरणकरस्स चू. | 3. हायते धुवं चू. । १४८ टाका
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy