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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा १७ मानपरित्यागाधिकारः शून्यागारगतस्य नीराजितवारणस्येव शीतोष्णादिजनिता उपसर्गाः सुसहा एव भवन्तीति भावः ॥१६॥ टीकार्थ - और भी साधु उन उपसर्गों से बार-बार पीड़ित किया हुआ भी जीवन की इच्छा न करे अर्थात् साधु जीवन से निरपेक्ष होकर उपसर्गों को सहन करे यह तात्पर्य हैं । तथा उपसर्ग सहन के द्वारा वह पूजा की चाहना अर्थात् अपनी बड़ाई की इच्छा न करे । इस प्रकार जीवन और पूजा से निरपेक्ष होकर जो साधु बार-बार भयंकर पिशाच तथा शृगाली आदि के उपद्रव को सहता रहता है । उसको वे पिशाच आदि आत्मीय जैसे अभ्यास को प्राप्त हो जाते हैं। तथा उनको सहन करने से मत्त हस्ती के समान शून्यागारगत साधु को शीतोष्णादिकृत उपद्रव भी सुख से सह्य हो जाते हैं ॥१६॥ - पुनरप्युपदेशान्तरमाह - - फिर भी सूत्रकार दूसरा उपदेश देते हैं - उवणीयतरस्स ताइणो, भयमाणस्स 'विविक्कमासणं । सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ॥१७॥ छाया - उपनीततस्य तायिनो, भजमानस्य विविक्तमासनम् । सामायिकमाहूः तस्य यद्य आत्मानं भये न दर्शयेत् ।। व्याकरण - (उवणीयतरस्स) मुनि का विशेषण (ताइणो) मुनि का विशेषण (विविक्कं) आसन का विशेषण (आसणं) कर्म (भयमाणस्स) मुनि का विशेषण (तस्स) मुनि का परामर्शक सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (सामाइयं) कर्म (आहु) क्रिया (जो) कर्ता (अप्पाणं) कर्म (भए) अधिकरण (दसए) क्रिया । अन्वयार्थ - (उवणीयतरस्स) जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुँचा दिया है (ताइणो) तथा जो अपना और दूसरे का उपकार करता है (विविक्कं) स्त्री, नपुंसक वर्जित (आसणं) स्थान को जो (भयमाणस्स) सेवन करता है (तस्स) ऐसे मुनि का सर्वज्ञों ने (सामाइयं) सामायिक चारित्र (आहु) कहा है (जं) इसलिए चारित्री पुरुष को (अप्पाणं) आत्मा में (भए ण दसए) भय प्रदर्शित नहीं करना चाहिए। भावार्थ - जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि में अतिशय रूप से स्थापित किया है, जो अपने तथा दूसरे का उपकार करता है, जो स्त्री, नपुंसक रहित स्थान में निवास करता है. ऐसे मनि का तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र कहा है. इसलिए मुनि को भयभीत नहीं होना चाहिए । टीका - उप- सामीप्येन नीतः- प्रापितो ज्ञानादावात्मा येन स तथा अतिशयेनोपनीत उपनीततरस्तस्य, 'ताइनः' परात्मोपकारिणः त्रायिणो वा सम्यक्पालकस्य, तथा 'भजमानस्य' सेवमानस्य 'विविक्तं' स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितम् आस्यते स्थीयते यस्मिन्निति तदासनं वसत्यादि, तस्यैवम्भूतस्य मुनेः 'सामायिकं' समभावरूपं सामायिकादिचारित्रमाहुः सर्वज्ञाः, 'यद्' यस्मात् ततश्चारित्रिणा प्राग्व्यवस्थितस्वभावेन भाव्यम्, यश्चात्मानं 'भये' परिषहोपसर्गजनिते 'न दर्शयेत्' तीरुन भवेत् तस्य सामायिकमाहुरिति सम्बन्धनीयम् ॥१७।। किञ्च टीकार्थ - जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि के पास पहुँचा दिया है, उसे 'उपनीत' कहते हैं। तथा जो अत्यन्त उपनीत है, उसे 'उपनीततर' कहते हैं । जो उपनीततर है और जो तायी यानी अपना और दूसरे का उपकार करता है अथवा जो अपना और दूसरे का सम्यक् प्रकार से पालन करता है, जो स्त्री, पशु और नपुंसक वर्जित स्थान में निवास करता है । यहाँ, जिस पर स्थित होते हैं, उसे आसन कहा है, वह वसति आदि है। ऐसे उस मुनि को सर्वज्ञों ने समभाव रूप सामायिक चारित्री कहा है। इसलिए चारित्री पुरुष को पूर्वोक्त रूप से व्यवस्थित स्वभाव होकर ही रहना चाहिए । तथा जो साधु परीषह और उपसर्ग जनित भय से भय नहीं पाता है, उसका भी सर्वज्ञों ने सामायिक चारित्र कहा है । यह सम्बन्ध कर लेना चाहिए ॥१७॥ 1. विवित्तमा० चू. । १४७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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