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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा १० मानपरित्यागाधिकारः छाया-धर्मस्य च पारगो मुनिरारम्भस्य चान्तके स्थितः । शोचन्ति च ममतावन्तः नो लभन्ते निजं परिग्रहम् ॥ व्याकरण - (धम्मस्स) सम्बन्धषष्ठ्यन्त (पारए) मुनि का विशेषण (आरंभस्स) सम्बन्धषष्ठ्यन्त (अंतए) अधिकरण (ठिए) मुनि का विशेषण (मुणि) कर्ता (ममाइणो) कर्ता (सोयंति) क्रिया (णियं) कर्म विशेषण (परिग्गह) कर्म (लब्मंति) क्रिया । अन्वयार्थ - (धम्मस्स) धर्म का (पारए) पारगामी (आरंभस्स) आरम्भ के (अंतए) अन्त में (ठिए) स्थित पुरुष (मुणी) मुनि कहलाता है (ममाइणो) ममतावाले पुरुष (सोयंति य) शोक करते हैं (णियं) अपने (परिग्गह) परिग्रह को (णो लब्मंति) नहीं प्राप्त करते हैं । भावार्थ - जो परुष धर्म के पारगामी और आरम्भ के अभाव में स्थित है. उसे मनि समझना चाहिए । ममता रखनेवाले जीव परिग्रह के लिए शोक करते हैं और वे शोक करते हुए भी अपने परिग्रह को प्राप्त नहीं करते । टीका - धर्मस्य श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य पारं गच्छतीति पारगः सिद्धान्तपारगामी सम्यक्चारित्रानुष्ठायी वेति, चारित्रमधिकृत्याह - 'आरम्भस्य' सावद्यानुष्ठानरूपस्य 'अन्ते' पर्यन्ते तदभावरूपे स्थितो मुनिर्भवति, ये पुनर्नेवं भवन्ति ते अकृतधर्माः मरणे दुःखे वा समुत्थिते आत्मानं शोचन्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे, यदिवेष्टमरणादौ अर्थनाशे वा 'ममाइणो' त्ति ममेदमहमस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनः शोचन्ति, शोचमाना अप्येते 'निजम्' आत्मीयं परि-समन्तात् गृह्यते आत्मसात्क्रियत इति परिग्रहः । हिरण्यादिरिष्टस्वजनादिर्वा तं नष्टं मृतं वा 'न लभन्ते' न प्राप्नुवन्तीति, यदि वा धर्मस्य पारगं मुनिमारम्भस्यान्ते व्यवस्थितमेनमागत्य 'स्वजनाः' मातापित्रादयः शोचन्ति 'ममत्वयुक्ताः' स्नेहालवः न च ते लभन्ते निजमप्यात्मीयपरिग्रहबद्धया गृहीतमिति ॥९॥ टीकार्थ - श्रुत और चारित्र भेद से धर्म द्विविध है, ऐसे धर्म को जिसने पार किया है अर्थात् जो सिद्धान्त का पारगामी है अथवा जो सम्यक चारित्र का अनुष्ठान करता है, वह मनि कहलाता है, चारित्र के विषय में कहते है कि- जो सावध अनुष्ठान के अन्त में अर्थात् अभाव से स्थित रहता है, वह पुरुष मुनि है। परन्तु जो ऐसे नहीं हैं, वे धर्माचरण नहीं किये हुए पुरुष, मरण अथवा दुःख उपस्थित होने पर अपने आत्मा के लिए शोक करते हैं । 'णं' शब्द वाक्यालंकार में आया है। अथवा इष्ट मरण और अर्थनाश होने पर 'यह मेरा है और मैं इसका स्वामी हूँ ऐसा अध्यवसाय रखनेवाले वे उसके लिए शोक करते हैं । शोक करने पर भी वे अपने उस परिग्रह को नहीं प्राप्त करते हैं । जो चारों तरफ से अपने आधीन किया जाता है। उसे परिग्रह कहते हैं। वह सुवणे आदि हैं । नष्ट हुए सुवर्ण आदि को अथवा मरे हुए स्वजन आदि को वे पुनः नहीं प्राप्त करते हैं । अथवा धर्म का पारगामी और आरम्भ के अन्त में स्थित मुनि के पास आकर उसके माता-पिता आदि स्वजन वर्ग उस मुनि पर ममत्व और स्नेह करते हुए शोक करते हैं, परन्तु उस मुनि को अपना परिग्रह समझते हुए भी वे उन्हें प्राप्त नहीं करते हैं ॥९॥ - अत्रान्तरे नागार्जुनीयास्तु पठन्ति 2'सोऊण तयं उवट्ठियं केइ गिही विग्घेण उठ्ठिया । धम्मंमि अणुत्तरे मुणी, तंपि जिणिज्ज इमेण पंडिए ॥१॥ एतदेवाह - - यहाँ नागार्जुनीय यह पाठ करते हैं - "सोऊण" इत्यादि । अर्थात् कोई गृहस्थ मुनि को वहाँ आये हुए जानकर विघ्न करने के लिए यदि आवें तो अनुत्तर धर्म में स्थित पण्डित मनि उनको इस रीति से जीत लेवे यही बात सूत्रकार कहते हैं - इहलोगदुहावहं विऊ, परलोगे य दुहं दुहावहं। विद्धंसणधम्ममेव तं, इति विज्जं कोऽगारमावसे? ॥१०॥ छाया-इहलोकदुःखावहं विद्याः परलोके च दुःखं दुःखावहम् । विध्वंसनथर्ममेव तद् इति विद्वान् कोऽगारमावसेत् ॥ 1. त्रिपदबहुव्रीहिरत्र, अन्समासान्तथ द्विपदादेव । 2. श्रुत्वा तमुपस्थित केचिद्गृहिणो विघ्नायोत्तिष्ठेयुः । धर्मेऽनुत्तरे मुनिस्तानपि जयेदनेन पण्डितः। १४१
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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