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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा ८-९ मानपरित्यागाधिकारः पदार्थो में आसक्त न रहकर धर्म को प्रकट करे । यह उत्तर गाथा के साथ सम्बन्ध है। इस विषय में दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे तालाब स्वच्छ जल से भरा हुआ होता है । अथवा वह जैसे अनेक जलचरों के संचार से भी मलिन नहीं होता है, इसी तरह साधु मलिन न होते हुए क्षांति आदि दशविध धर्म को प्रकट करते थे । अथवा इस प्रकार रहता हुआ ही साधु तीर्थंकर सम्बन्धी धर्म को प्रकाश करे, यहाँ वर्तमान में छान्दसत्वात् भूत का निर्देश किया है ॥७॥ - स बहुजननमने धर्मे व्यवस्थितो यादृग् धर्म प्रकाशयति तदर्शयितुमाह-यदि वोपदेशान्तरमेवाधिकृत्याह बहुत जनों से नमस्कृत धर्म में स्थित साधु, जैसा धर्म को प्रकाश करता है, वह दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं - अथवा दूसरा उपदेश करते हैं - बहवे पाणा पुढो सिया, पत्तेयं समयं समीहिया । जो मोणपदं उवद्विते, विरतिं तत्थ अकासि पंडिए ॥८॥ छाया-बहवः प्राणाः पृथक् श्रिताः प्रत्येकं समतां समीक्ष्य । यो मोनपदमुपस्थितो विरतिं तत्राकार्षीत् पण्डितः ॥ व्याकरण - (बहवे) प्राणी का विशेषण (पाणा) कर्ता (पुढो) अव्यय (सिया) प्राणी का विशेषण (पत्तेयं) अव्यय (समय) कर्म (समीहिया) पूर्वकालिक क्रिया । (जो) कर्ता (मोणपदं) कर्म (उवट्टिते) कर्ता का विशेषण (तत्थ) अधिकरण (विरति) कर्म (अकासी) क्रिया (पंडिए) कर्ता । अन्वयार्थ - (बहवे) बहुत से (पाणा) प्राणी (पुढो) पृथक्-पृथक् (सिया) इस जगत् में निवास करते हैं (पत्तेयं) प्रत्येक प्राणी को (समय) समभाव से (समीहिया) देखकर (मोणपदं) संयम में (उवट्टिते) उपस्थित (पंडिए) पण्डित पुरुष (तत्थ) उन प्राणियों के घात से (विरति) विरति (अकासी) करे। भावार्थ - इस संसार में बहुत से प्राणी पृथक्-पृथक् निवास करते हैं। उन सब प्राणियों को समभाव से देखनेवाला संयम मार्ग में उपस्थित विवेकी पुरुष उन प्राणियों के घात से विरत रहे । टीका - 'बहवे' इत्यादि, बहवः अनन्ता प्राणाः दशविधप्राणभाक्त्वात्तदभेदोपचारात् प्राणिनः पृथगिति पृथिव्यादि-भेदेन सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापाप्तनरकगत्यादिभेदेन वा संसारमाश्रिताः तेषां च पृथगाश्रितानामपि प्रत्येक समतां दुःखद्वेषित्वं सुखप्रियत्वं च समीक्ष्य दृष्ट्वा यदिवा समतां माध्यस्थ्यमुपेक्ष्य (त्य) यो मौनीन्द्रपदमुपस्थितः संयममाश्रितः स साधुः तत्र अनेकभेदभिन्नप्राणिगणे दुःखद्विषि सुखाभिलाषिणि सति तदुपघाते कर्तव्ये विरतिमकार्षीत् कुर्याद्वेति, पापाड्डीनः पापानुष्ठानाद् दवीयान् पण्डित इति ॥८॥ टीकार्थ - दशविध प्राणों को धारण करने के कारण यहाँ प्राणों के साथ अभेद आरोप करके प्राणियों को प्राण कहा है। इस जगत् में पृथिवी आदि भेद से अथवा सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त और नरक गति आदि भेद से अनन्त प्राणी निवास करते हैं । पृथक् रहनेवाले वे प्रत्येक प्राणी समान रूप से दुःख के साथ द्वेष और सुख के साथ प्रेम करते हैं, यह देखकर अथवा सब प्राणियों के विषय में मध्यस्थवृत्ति धारण करके संयम में उपस्थित पाप के अनुष्ठान से दूर रहनेवाला पण्डित पुरुष, दुःख-द्वेषी और सुख-प्रेमी उन अनेक भेदवाले प्राणियों के घात से विरत रहे ॥८॥ - अपि च - और भी - धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतए ठिए । सोयंति य णं ममाइणो, णो लब्भंति अणियं परिग्गहं 1. बहवो चू. । 2. उवेहाए चू.। 3. णितियं चू. । ॥९॥ १४०
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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