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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा ७ मानपरित्यागाधिकारः समाहितः सन् नरः पुमान् सर्वार्थः बाह्याभ्यन्तरैर्धनधान्यकलत्रममत्वादिभिः अनिश्रितः अप्रत्तिबद्धः सन् धर्म प्रकाशितवानित्युत्तरेण ह-हद इव स्वच्छाम्भसा भतः सदा अनाविलः अनेकमत्स्यादिजलचर-संक्रमेणाप्यनाकलोऽकलषो वा क्षान्त्यादिलक्षणं धर्म प्रादुरकार्षीत् प्रकटं कृतवान् यदि वा एवंविशिष्ट एव काश्यपं तीर्थङ्करसम्बन्धिनं धर्म प्रकाशयेत् छान्दसत्वाद् वर्तमाने भूतनिर्देश इति ॥७॥ टीकार्थ - जो, बहुत जनों को अपने प्रति झुका देता है, अथवा जो बहुत जनों से प्रशंसा किया जाता है, उसे 'बहुजननमन' कहते हैं। वह धर्म है क्योंकि धर्म की ही बहुत लोग अपने-अपने अभिप्राय तथा स्वीकार के अनुसार प्रशंसा किया करते हैं। कैसे ? इस विषय में एक कथानक है - राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा रहते थे । वह किसी समय, चतुर्विध बुद्धिसंपन्न अपने पुत्र अभयकुमार के साथ सभा में बैठकर नाना प्रकार की कथाओं से चित्त विनोद कर रहे थे। किसी समय वहाँ यह प्रसंग छिड़ गया कि इसलोक में धार्मिक बहुत हैं अथवा अधार्मिक पुरुष बहुत हैं ? इस विषय में समस्त सभासदों ने यह कहा कि "इसलोक में अधार्मिक पुरुष ही बहुत हैं । धर्म तो कोई सौ में से एकाध पुरुष ही करता हैं।" यह सुनकर अभयकुमार ने कहा कि- "प्रायः सभी लोग धार्मिक ही हैं ।" यदि विश्वास न हो तो आप परीक्षा कर लें । सभासदों ने कहा कि ऐसा ही हो। इसके पश्चात् अभयकुमार ने एक श्वेत और दूसरा कृष्ण दो महल बनवाये और नगर में यह घोषणा करवायी कि"जो कोई धार्मिक है वह सभी पूजा की सामग्री लेकर श्वेत महल में प्रवेश करे और जो अधार्मिक है वह कृष्ण प्रासाद में चला जाय ।" इसके पश्चात् सभी लोग धवल प्रासाद में ही गये । जब वे निकलने लगे तो उनसे पूछा गया कि- "तुम किस प्रकार धार्मिक हो ?" इस प्रश्न पर किसी ने कहा कि मैं किसान हूँ इसलिए बहुत से पक्षी मेरे धान्य के दानों से अपनी तृप्ति करते हैं, तथा खलिहान में आये हुए धान्य में से भिक्षा देने से मुझ को धर्म का लाभ होता है, इसलिए मैं धार्मिक हूँ। दूसरे ने कहा कि- मैं ब्राह्मण हूँ, मैं षट्कर्म में तत्पर रहकर शौच, स्नान आदि के द्वारा वेदोक्त विधि के अनुसार पितर और देवताओं को तर्पण करता हूँ इसलिए मैं धार्मिक हूँ, दूसरा कहता है कि- मैं वणिक् कुल यानी व्यापार के द्वारा जीविका चलाता हुआ भिक्षादान आदि कार्य में प्रवृत्त रहता हूँ इसलिए मैं धार्मिक हूँ। दूसरे ने कहा कि- मैं कुलपुत्र हूँ इसलिए न्याय से उत्पन्न आश्रय रहित अपने कुटुम्ब का पोषण करता हूँ, इसलिए मैं धार्मिक हूँ। अंततः चाण्डाल ने भी यह कहा कि मैं अपने कुल परम्परागत धर्म का पालन करता हूँ और मेरे अधीन बहुत से मांसाहारी अपने प्राणों को धारण करते हैं इसलिए मैं धार्मिक हूँ। इस प्रकार सभी लोग अपने-अपने व्यापार को धर्म में स्थापित करने लगे। परंतु वहाँ दो श्रावक कृष्ण प्रासाद में प्रवेश किये हुए थे। उनसे जब पूछा गया कि- "तुम लोगों ने कौन सा अधर्म किया है।" तो उन्होंने कहा कि- "हम लोगों ने मद्यपान के त्याग का नियम लेकर एकबार उसे तोड़ दिया है। वस्तुतः साधु ही इस जगत् में धार्मिक हैं, जो अपनी ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा का निर्वाह करने में समर्थ हैं। हम लोगों ने तो मनुष्य जन्म पाकर तथा जैन शासन को प्राप्त कर के मद्यपीने का त्याग लेकर भी अच्छी तरह उसका पालन नहीं किया है ||१|| इस व्रत भंग के कारण अपने को अधार्मिक तथा अधम से अधम समझकर हमने कृष्ण प्रासाद का आश्रय लिया है ||२|| क्योंकि - लज्जा आदि गुण समूह को उत्पन्न करनेवाली अत्यंत शुद्ध हृदया आर्या माता के समान प्रतिज्ञा की सेवा करनेवाले सत्यव्रत व्यसनी, तेजस्वी पुरुष अपने प्राणों को सुखपूर्वक छोड़ देते हैं, परन्तु प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ते हैं ॥३॥ जलती हुई आग में प्रवेश करना अच्छा परन्तु चिरसंचित व्रत को तोड़ना अच्छा नहीं। शुद्ध चित्तवाले पुरुष का मर जाना भी अच्छा परन्तु शील भ्रष्ट पुरुष का जीवन अच्छा नहीं ॥४|| इस प्रकार सभी लोग प्रायः अपने को धार्मिक ही मानते हैं, इसलिए यहाँ धर्म को बहुजननमन कहा है यह बात सत्य है । उस धर्म में सावधान होकर मनुष्य, बाह्य धन-धान्य, कलत्र आदि तथा अभ्यन्तर ममता आदि विनताले पत्रकार सभी लोग शामः वधान हो १३९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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