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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना
प्रस्तावना
अनादि काल से इस धरातल पर यह शाश्वत प्रवाह चला आ रहा है कि जब तीर्थंकर प्रभु गणधर भगवंतों को त्रिपदी प्रदान करते हैं तब अन्तर्मुहर्तमात्र में द्वादशांगी की रचना कर देते हैं। उनमें सर्व प्रथम आचाराङ्ग की रचना होती है । आचार समस्त भावों का मूलाधार है। ज्ञानप्राप्ति भी आचार की ज्ञप्ति, पालन एवं शुद्धि के लिए होती है। बिना आचार का ज्ञान अजागलस्तन के समान निरर्थक है। आचाराङ्ग के पश्चात् द्वितीय अंग की रचना होती है, जिसका नाम है सूयगडांग सूयगडांग की तीन परिभाषाएँ निर्मुक्तिकार टीकाकार ने की है
(१) सूतकृतम्: सूतम् उत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृदभ्यस्ततः कृतं ग्रन्थरचनया गणधरै तीर्थंकरों से अर्थ रूप में उत्पन्न होने से एवं गणधरों के द्वारा सूत्र रूप में उत्पन्न होने के कारण सूतकृत कहा जाता है। (२) सूत्रकृतम्: सूत्रानुसारेण तत्त्वावबोधः क्रियते यस्मिन्सूत्र के अनुसार जिससे तत्त्व का अवबोध किया जाता है ।
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(३) सूचाकृतम्: स्वपरसमयार्थसूचनं = सूचा सा अस्मिन् कृता स्वपर समय के अर्थ को कहना उसे सूचा कहते है। वह सूचा जिसमें दर्शायी गयी है, वह सूचाकृतम् ।
दीक्षा के पश्चात् आचाराङ्ग सूत्र को आत्मसात् कर संयमी संयम के आचारों का ज्ञाता एवं उसके पालन में दक्षता प्राप्त करता है । वह निरंतर आचार-शुद्धि के लिए एवं दोषों से बचने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार अहर्निश प्रयत्न से वह आचारों के विषय में स्थिरता प्राप्त कर लेता है। उसका जीवन आचारमय बन जाता है। इस प्रकार के आचारयुक्त साधु के जीवन में भी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है, जिससे संयमच्युत होने की संभावना उसके समक्ष उपस्थित होती है । जैसे परतीर्थिकों से श्रद्धा - नाश, स्त्रियों से चारित्र - नाश उपद्रवों से सत्त्व नाश या जीवन-नाश जैसी कठिनतम परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है, जिनसे महाप्रभावशाली साधक के लिए भी उनसे पार पाना सुदुष्कर बन जाता है। उसका समस्त संयम जीवन भी डोलायमान बन जाता है। उसकी मानसिक स्थिरता अत्यन्त चलित हो जाती है तब उसके जीवन की इस दयनीय वेला में, जैसे अंधकार में दीपक प्रकाशक बनता है, वैसे ही यह सूयगडांग ग्रन्थ मेदिनी के समान आधारभूत बनकर संयम- पतित होने से बचाता है। आचारांग चरणकरणानुयोग का विषय है और सूयगडांग द्रव्यानुयोग का विषय है। इन दोनों के सुमिलाप से उस योगी की नैया भव समुद्र से पार लग जाती है। प्राप्त श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र का शुद्धिकारक एवं वृद्धिकारक यह ग्रन्थ है स्वपरसमयवक्तव्यता, स्त्री अधिकार, नरक - विभक्ति जैसे अध्ययन इसके अत्यन्त मननीय है। संयम जीवन के लिए अत्यन्त उपकारी होने से सबके लिए यह ग्रन्थ उपादेय बन जाता है इसलिए योग्य को इस ग्रन्थ का अध्ययन-अध्यापन अवश्य करना - कराना चाहिए ।
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लब्धिधारी गणधर भगवन्त के मुख रूपी द्रह से यह सूयगडांग रूपी पावन गंगा उद्भूत हुई है। सर्वाक्षर सन्निपाती चतुदर्शपूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने इस पर नियुक्ति रचकर इसे और सुमधुर बनाया है एवं शीलांकाचार्यजी ने इस पर वृत्ति का निर्माण कर मानो उस मधुर पेय का पात्र भरकर हमारे समक्ष रख दिया है। अब हमारा यह कर्तव्य बनता है कि इसका पान कर अपनी आत्मा को निर्मल बनाए तो ही हमनें इन पूर्व पुरुषों के इस पुरुषार्थ को सफल बनाया है ऐसा माना जाएगा वरना उल्लू जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से वंचित रहता है, उसी तरह हम भी इस आगम रूपी सूर्य-प्रकाश से ज्ञेय पदार्थ के ज्ञान के अभाव के कारण अपने महामूल्य तत्त्वज्ञान से वंचित रह जाएँगे । तत्त्वज्ञान के बिना मोक्ष मार्ग मे अग्रेसरता अशक्य है । अतः ज्ञान- दीप हृदयघट में प्रकट करने के लिए इस ग्रन्थ का परिशीलन करे ।
इस ग्रन्थ के संशोधन में उदारमना शास्त्रसंशोधनरत आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरिजी ने अपना अमूल्य समय देकर सहायता प्रदान की है । उनके द्वारा इस ग्रन्थ विषयक उपयोगी सामग्री उपलब्ध करवाकर एवं समय - समय पर
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