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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ११-१२ चरिआसणसेज्जासु भत्तपाणे अ अंतसो छाया - व्युषितश्च विगतगृद्धिरादानं सम्यग्रक्षेत । चर्य्यासनशय्यासु भक्तपानेचान्तशः ॥ ( वुसिए, विगयगेही) ये साधु के विशेषण है ( आयाणं) कर्म (संरक्खए) क्रिया (चरिआसणसेज्जासु, भत्तपाणे) अधिकरण (अ) अव्यय ( अंतसो ) अव्यय । व्याकरण - अन्वयार्थ - (वुसिए) दश प्रकार की साधु समाचारी में स्थित (विगयगेही) आहार आदि में गृद्धि रहित साधु (आयाणं) ज्ञान, दर्शन और चारित्र की ( संरक्खए) सम्यक् प्रकार से रक्षा करे (चरिआसणसेज्जासु) चलने फिरने, बैठने और शय्या के विषय में (अंतसो) अन्ततः (भत्तपाणे य) भात, पानी के विषय में सदा उपयोग रखे । - भावार्थ दश प्रकार की साधु समाचारी में स्थित आहार आदि में गृद्धि रहित मुनि, ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अच्छी तरह से रक्षा करे एवं चलने फिरने, बैठने, सोने तथा भात, पानी के विषय में सदा उपयोग रखे । टीका - विविधम्- अनेकप्रकारमुषितः स्थितो दशविधचक्रवालसमाचार्य्यं व्युषितः, तथा विगता अपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्याऽसौ विगतगृद्धिः साधुः एवंभूतश्चादीयते स्वीक्रियते प्राप्यते वा मोक्षो येन तदादानीयं - ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं तत्सम्यग् रक्षयेद् अनुपालयेत्, यथा यथा च तस्य वृद्धिर्भवति तथा तथा कुर्य्यादित्यर्थः । कथं पुनश्चारित्रादि पालितं भवतीति दर्शयति- चर्य्यासनशय्यासु चरणं चर्य्या-गमनं साधुना हि सति प्रयोजने युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यं, तथा सुप्रत्युपेक्षिते सुप्रमार्जिते चासने उपवेष्टव्यं तथा शय्यायां वसतौ संस्तारके वा सुप्रत्युपेक्षितप्रमार्जिते स्थानादि विधेयं, तथा भक्तपाने चान्तशः सम्यगुपयोगवता भाव्यम्, इदमुक्तं भवति ईर्य्याभाषैषणाऽऽदाननिक्षेपप्रतिष्ठापनासमितिषूपयुक्तेनान्तशो भक्तपानं यावदुद्गमादिदोषरहितमन्वेषणीयमिति ॥११॥ - - पुनरपि चारित्रशुद्धयर्थं गुणानधिकृत्याह परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः टीकार्थ - तलवार की धार के समान जो दश प्रकार की साधु समाचारी है, उसमें अनेक प्रकार से स्थित पुरुष 'व्युषित' कहलाता है । तथा आहार आदि में जिसकी गृद्धि नहीं है, वह 'विगतगृद्धि' कहलाता है । इन दोनों गुणों से युक्त मुनि जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सम्यक् प्रकार से रक्षा करे । ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जिस-जिस तरह से वृद्धि उक्त मुनि उस-उस तरह का कार्य्य करें । चारित्र आदि का पालन किस तरह हो सकता है ? यह शास्त्रकार दिखलाते है, चलने को, 'चर्य्या' कहते हैं । प्रयोजनवश किसी स्थान पर जाता हुआ साधु युगमात्र दृष्टि रखकर जावे, तथा खूब अच्छी तरह देखकर सुप्रमार्जित आसन पर बैठे एवं अपनी शय्या अथवा बिस्तर को (संथारादि) अच्छी तरह देख और प्रमार्जित कर के उस पर स्थिति करे एवं भात, पानी के विषय में भी अच्छी तरह उपयोग रखे । आशय यह है कि साधु, ईर्ष्या, भाषा, एषणा आदान निक्षेप और प्रतिष्ठापना समिति में सदा उपयोग रखता हुआ उद्गमादि दोषवर्जित भात पानी का अन्वेषण करे ॥ ११॥ ॥११॥ - और भी शास्त्रकार चारित्र की शुद्धि के लिए गुणों को बतलाते हैं तेहिं तिहिं ठाणेहिं, संजय सततं मुणी । उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विगिंचए - ॥१२॥। छाया एतेषु त्रिषु स्थानेषु संयतः सततं मुनिः । उत्कर्षः ज्वलनं छादकं मध्यस्थं च विवेचयेत् ॥ व्याकरण - ( एतेहिं, तीहिं) स्थान के विशेषण ( ठाणेहिं) अधिकरण (सततं) क्रिया विशेषण (संजए) मुनि का विशेषण (मुणी) कर्ता (उक्कसं, जलणं, णूमं, मज्झत्थं) ये सब कर्म (विचिए) क्रिया (च) अव्यय । अन्वयार्थ - ( एतेहिं) इन (तीहिं) तीन (ठाणेहिं) स्थानों में (सततं) सदा (संजए) संयम रखता हुआ (मुणी) मुनि (उक्कसं) मान (जलणं) क्रोध (णूमं) माया (च) और (मज्झत्थं) लोभ का (विगिंचए ) त्याग करे । 1. संजमेज्ज चू. । १०९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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