SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा १० परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः औदारिक शरीरवाले प्राणी, गर्भ, कलल और अर्बुद रूप पूर्व अवस्था को छोड़कर उससे विपरीत बाल, कौमार और यौवन आदि स्थूल अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं। आशय यह है कि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदि प्राणियों की कालकृत कौमार आदि अवस्थायें प्रत्यक्ष ही भिन्न-भिन्न देखी जाती हैं, परन्तु जो जैसा पहले होता है, वह सदा वैसा ही रहे यह नहीं देखा जाता है । इसी तरह स्थावर जङ्गम सभी प्राणी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते है, यह जानना चाहिए। सांसारिक सभी प्राणी, शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित तथा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए पाये जाते है, अतः उन प्राणियों की जिस प्रकार हिंसा न हो वही करना चाहिए। अथवा सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय और सुख प्रिय होता है, अतः सभी की हिंसा न करनी चाहिए । इसीलिए इस पद्य के द्वारा प्राणियों का अन्यथाभाव बताया गया है और उनको न मारने का उपदेश भी दिया है ॥९॥ किमर्थं सत्त्वान् न हिंस्यादित्याह प्राणियों की हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए सो शास्त्रकार बतलाते हैं एयं खु नाणिणो सारं, जन्न हिंसइ किंचण । अहिंसासमयं चेव, एतावंतं वियाणिया 118011 छाया - एतत् खलु ज्ञानिनः सारं, या हिनस्ति कञ्चन । अहिंसासमतां चैवैतावद्विजानीयात् ॥ व्याकरण (एयं) सर्वनाम, सार का विशेषण (नाणिणो ) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (सारं) कर्ता (जत्) हेत्वर्थक (न) अव्यय (हिंसइ) क्रिया (किं) कर्म ( च ण) अव्यय ( एतावंतं) सर्वनाम (अहिंसासमयं ) कर्म (वियाणिया) क्रिया । - - अन्वयार्थ - (नाणिणो ) विवेकी पुरुष के लिए (एयं खु) यही (सारं ) न्यायसङ्गत है कि ( किंचण ) किसी जीव को (न हिंसइ) वे न मारें ( अहिंसासमयं चेव ) अहिंसा के कारण जो सब प्राणियों में समभाव रखना है ( एतावंतं) उसे भी इतना ही (वियाणिया) जानना चाहिए । भावार्थ - किसी जीव को न मारना यही ज्ञानी पुरुष के लिए न्याय संगत और अहिंसा रूप समता भी इतनी ही है। टीका - खुरवधारणे, एतदेव ज्ञानिनो विशिष्टविवेकवतः सारं न्याय्यं यत् कञ्चन प्राणिजातं स्थावरं जङ्गमं वा न हिनस्ति न परितापयति, उपलक्षणं चैतत् तेन न मृषा ब्रूयान्नादत्तं गृह्णीयान्नाब्रह्माऽऽसेवेत न परिग्रहं परिगृहणीयान्न नक्तं भुञ्जीतेत्येतद् ज्ञानिनः सारं यन्न कर्माश्रवेषु वर्तत इति । अपि च अहिंसया समता अहिंसासमता तां चैतावद्विजानीयात्, यथा मम मरणं दुःखं चाप्रियमेवमन्यस्यापि प्राणिलोकस्येति । एवकारोऽवधारणे, इत्येवं साधुना ज्ञानवता प्राणिनां परितापनाऽपद्रावणादि न विधेयमेवेति ॥१०॥ १०८ टीकार्थ- 'खु' शब्द अवधारण अर्थ में आया है। विशिष्ट विवेकी अर्थात् ज्ञानी पुरुष के लिए यही न्याय सङ्गत है कि वे स्थावर, जङ्गम किसी भी प्राणी की हिंसा न करे तथा उन्हें कष्ट न दें। यहाँ हिंसा न करना उपलक्षण है, इसलिए ज्ञानी पुरुष झुठ न बोलें और न दी हुई चीज न लें, मैथुन सेवन न करें, परिग्रह न रखें और रात्रिभोजन न करें । ज्ञानी के लिए न्याय सङ्गत यही है कि वे कर्माश्रवों में न पडें । तथा अहिंसा के कारण जो समभाव है वह भी इतना ही है। जैसे मुझे मरण अप्रिय है, उसी तरह सब प्राणियों को अपना मरण अप्रिय यह जानकर ज्ञानवान् साधु को, प्राणियों को पीड़ा तथा कष्ट नहीं देना चाहिए ॥१०॥ - एवं मूलगुणानभिधायेदानीमुत्तरगुणानाभिधातुकाम आह इस प्रकार मूलगुणों का वर्णन कर अब उत्तरगुणों को कहने की इच्छा से कहते हैं वुसिए य विगयगेही 1, आयाणं सं ( सम्म) रक्खए । 1. विगयगिद्धी य प्र. । 2. आयाणीयं सरक्खए चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy