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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ९ परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः बुद्धिमान् पुरुष उसके द्वारा कहे हुए हेय और उपादेय के विषय में प्रवृत्त नहीं हो सकते हैं, अतः सर्वज्ञ मानना आवश्यक है । तथा यह जो कहा है कि- "ब्रह्मा सोते समय कुछ नहीं जानता है, परन्तु जागते समय जानता है ।" तो यह बात भी कोई अपूर्व नहीं है, क्योंकि सभी प्राणी सोते समय कुछ नहीं जानते हैं और जागते समय जानते हैं। तथा लौकिकों ने यह जो कहा है कि- "ब्रह्मा के सोने पर जगत् का प्रलय और जागने पर उदय होता है।" यह भी अयुक्त है, क्योंकि इसका विवेचन हम पहले ही कर आये हैं अतः यहाँ विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं है । वस्तुतः इस जगत् का कभी भी अत्यन्त विनाश अथवा अत्यन्त उत्पत्ति नहीं होती है । "यह जगत् कभी भी ओर तरह का नहीं होता हैं ।" यह वचन है । इस प्रकार "यह जगत् अनन्त है" इत्यादिक लोकवाद को छोड़कर शास्त्रकार पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का प्रकाश गाथा के उत्तरार्ध के द्वारा करते हैं इस संसार में जो त्रस और स्थावर प्राणी है, वे अपने-अपने कर्म का फल भोगने के लिए अवश्य एक से दूसरे पर्य्याय में जाते हैं, यह बात निश्चित और आवश्यक है । त्रस प्राणी अपने कर्म का फल भोगने के लिए स्थावर पर्य्याय में जाते और स्थावर प्राणी त्रस पर्य्याय में जाते हैं । परन्तु त्रस दूसरे जन्म में भी त्रस ही होते हैं और स्थावर स्थावर ही होते हैं अर्थात् जो इस जन्म में जैसा है, वह दूसरे जन्म में भी वैसा ही होता है, यह नियम नहीं है ॥८॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्ताभिधित्सयाऽऽह संसारी प्राणी भिन्न-भिन्न पर्य्यायों में बदलते रहते हैं, इस बात को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार दृष्टान्त बतलाते हैं उरालं जगतो जोगं, विवज्जासं पलिंति य । सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसिता छाया - उदारं जगतो योगं विपर्यासं पल्ययन्ते । सर्वेऽकान्तदुःखाश्च, अतः सर्वेऽर्हिसिताः ॥ व्याकरण - ( जगतो) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (जोगं) कर्म (उरालं, विवज्जासं) योग के विशेषण (पलिंति) क्रिया (य) अव्यय (सव्वे) प्राणियों का बोधक सर्वनाम (अक्कंतदुक्खा) प्राणियों का विशेषण (य) अव्यय (अओ) अव्यय (सव्वे, अहिंसिता) प्राणी के विशेषण । अन्वयार्थ - (जगतो) औदारिक जीवों का (जोगं) अवस्था विशेष (उरालं) स्थूल है । (य) और वह (विवज्जासं) विपर्य्यय को (पलिंति य) प्राप्त होता है । (सव्वे) सभी प्राणी को (अक्कंतदुक्खा) दुःख अप्रिय है (अओ) इसलिए (सव्वे) सभी प्राणी की ( अहिंसिता ) हिंसा नहीं करनी चाहिए । - भावार्थ औदारिक जन्तुओं का अवस्था विशेष स्थूल है, क्योंकि सभी प्राणी एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में जाते रहते हैं । तथा सभी प्राणी को दुःख अप्रिय है, इसलिए किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । टीका 'उराल' मिति स्थूलमुदारं 'जगत' औदारिकजन्तुग्रामस्य योगं व्यापारं चेष्टामवस्थाविशेषमित्यर्थः, औदारिकशरीरिणो हि जन्तवः प्राक्तनादवस्थाविशेषाद् गर्भकललार्बुदरूपाद् विपर्य्यासभूतं बालकौमारयौवनादिकमुदारं योगं परिसमन्तादयन्ते गच्छन्ति पर्य्ययन्ते, एतदुक्तं भवति- औदारिकशरीरिणो हि मनुष्यादेर्बालकौमारादिक: कालादिकृतोऽवस्थाविशेषोऽन्यथा चान्यथा च भवन् प्रत्यक्षेणैव लक्ष्यते, न पुन र्यादृक् प्राक् तादृगेव सर्वदेति, एवं सर्वेषां स्थावरजङ्गमानामन्यथाऽन्यथा च भवनं द्रष्टव्यमिति । अपि च- सर्वे जन्तव आक्रान्ता अभिभूताः दुःखेन शारीरमानसेनासातोदयेन दुःखाक्रान्ताः सन्तोऽन्यथाऽवस्थाभाजो लभ्यन्ते, अतः सर्वेऽपि यथाऽहिंसिताः भवन्ति तथा विधेयम्। यदिवा- सर्वेऽपि जन्तवः अकान्तम् अनभिमतं दुःखं येषान्तेऽकान्तदुःखाः 'च' शब्दात् प्रियसुखाश्च, अतस्तान् सर्वान् न हिंस्यादित्यनेन चान्यथात्वदृष्टान्तो दर्शितो भवत्युपदेशश्च दत्त इति ॥९॥ टीकार्थ औदारिक शरीरवाले सब जीवों का योग व्यापार यानी अवस्था विशेष उदार अर्थात् स्थूल 11811 - - । १०७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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