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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा १३ परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः भावार्थ - ईर्ष्या समिति, आदान निक्षेपणा समिति और एषणा समिति, इन तीनों स्थानों में सदा संयम रखता हुआ मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करे । टीका - एतानि - अनन्तरोक्तानि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा - ईर्य्यासमितिरित्येकं स्थानम् आसनं शय्येत्यनेनादानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितिरित्येतच्च द्वितीयं स्थानं, भक्तपानमित्यनेनैषणासमितिरुपात्ता, भक्तपानार्थं च प्रविष्टस्य भाषणसम्भवाद् भाषासमितिराक्षिप्ता, सति चाहारे उच्चारप्रस्रवणादीनां सद्भावात् प्रतिष्ठापनासमितिरप्यायातेत्येतच्च तृतीयं स्थानमिति, अत एतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यग्यतः संयत आमोक्षाय परिव्रजेदित्युत्तर श्लोकान्ते क्रियेति । तथा सततम् अनवरतम् मुनिः सम्यक् यथावस्थितजगत्त्रयवेत्ता उत्कृष्यते आत्मा दर्पाध्मातो विधीयतेऽनेनेत्युत्कर्षो - मानः तथा आत्मानं चारित्रं वा ज्वलयति - दहतीति ज्वलनः - क्रोधः, तथा 'णूम' मिति गहनं मायेत्यर्थः, तस्या अलब्धमध्यत्वादेवमभिधीयते, तथा आसंसारमसुमतां मध्ये अर्न्तभवतीति मध्यस्थो लोभः, च शब्दः समुच्चये, एतान् मानादींश्चतुरोऽपि कषायाँस्तद्विपाकाभिज्ञो मुनिः सदा विचिति विवेचयेदात्मनः पृथक् कुर्य्यादित्यर्थः । ननु चान्यत्रागमे क्रोध आदावुपन्यस्यते, तथा क्षपक श्रेण्यामारूढो भगवान् क्रोधादीनेव संज्वलनान् क्षपयति, तत्किमर्थमागमप्रसिद्धं क्रममुल्लङ्घयादौ मानस्योपन्यास इति ? अत्रोच्यते, माने सत्यवश्यं भावी क्रोधः, क्रोधे तु मानः स्याद्वा न वेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरणमिति ॥१२॥ टीकार्थ - पूर्वोक्त तीन स्थानों में साधु को सदा संयम के साथ रहना चाहिए। पूर्वोक्त तीन स्थान ये हैंईर्ष्या समिति, यह पहला स्थान है । तथा आसन और शय्या शब्द से आदान और भाण्डनिक्षेपणा समिति कही गयी है, यह दूसरा स्थान है। भक्त पान शब्द से एषणा समिति कही गयी है। भक्त पान के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश किये हुए साधु का भाषण करना भी संभव है, इसलिए यहाँ भाषा समिति का भी आक्षेप समझना चाहिए । आहार करने पर उच्चार और प्रस्रवण भी संभव है, इसलिए प्रतिष्ठापना समिति भी यहाँ आ ही जाती है, यह तीसरा स्थान है । इन तीनों स्थानों में सदा संयम के साथ रहता हुआ साधु मोक्षपर्य्यन्त संयम का पालन करे, यह उत्तर श्लोक की क्रिया का यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। तीन लोक के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला मुनि, जिससे आत्मा अभिमान युक्त होता है, ऐसे उत्कर्ष यानी मान को त्याग देवे । जो अपने आत्मा को तथा चारित्र को जलाता है, उसे 'ज्वलन' कहते हैं वह, क्रोध है, उस क्रोध को भी मुनि छोड़ देवे । एवं 'णूम' माया को कहते हैं, इस माया का मध्य जाना नहीं जाता है, इसलिए इसे 'णूम' (गहन) कहते हैं । मुनिराज इस माया का भी त्याग करें। संसार पर्य्यन्त जो प्राणियों के मध्य में निवास करता है, उसे मध्यस्थ कहते हैं, वह लोभ है, उसको भी मुनि छोड़ देवे । इस गाथा में 'च' शब्द समुच्चयार्थक है, इसलिए चतुर्विध कषायों का फल जाननेवाला मुनि, उक्त चार कषायों को सदा के लिए त्याग देवे । शङ्का - दूसरी जगह सर्वत्र आगमों में पहले क्रोध का कथन हुआ है तथा क्षपक श्रेणि में आरूढ़ भगवान् संज्वलनात्मक क्रोध आदि का ही नाश करते हैं, फिर शास्त्र प्रसिद्ध क्रम को उल्लंघन करके यहाँ पहले मान का कथन क्यों किया है ? समाधान मान होने पर क्रोध अवश्य होता है परन्तु क्रोध होने पर मान होता भी है और नहीं भी होता है । इस बात को प्रकट करने के लिए यहाँ क्रम का उल्लंघन किया है ॥ १२ ॥ - • तदेवं मूलगुणानुत्तरगुणांश्चोपदर्थ्याधुना सर्वोपसंहारार्थमाह इस प्रकार मूल गुण और उत्तर गुणों को बताकर अब शास्त्रकार सब का उपसंहार करते हुए कहते हैंसमिए उ सया साहू, पंचसंवरसंवुडे । सिहि असिए भिक्खू, आमोक्खाय परिव्वज्जासि ११० इति समयाख्यं पढमाज्झयणं समत्तं । [ ग्रा. ग्रं. ८८ ] ।। १३ ।। त्ति बेमि
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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