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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २२ परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः मार्गः अञ्जूरिति निर्दोषत्वाद् व्यक्तः-स्पष्टः, परैस्तिरस्कर्तुमशक्यः, ऋजुर्वा-प्रगुणोऽकुटिलः, यथावस्थितार्थाभिधायित्वात्, किमिति (ते) एवमभिदधति ? हि यस्मादर्थे यस्मात्ते दुर्मतयो विपर्यस्तबुद्धय इत्यर्थः ॥२१॥ टीकार्थ - इस प्रकार-पूर्वोक्त नीति से कोई अज्ञानी अपने आप कल्पना की हुई असत्कल्पनाओं के कारण दूसरे किसी ज्ञानवादी आहेत आदि की सेवा नहीं करते हैं। वे अपने अभिमानरूपी ग्रह से ग्रास किये हुए "हम ही तत्त्वज्ञानी हैं, दूसरा कोई भी नहीं है।" यह समझकर दूसरे की सेवा नहीं करते हैं। तथा वे अपने वितर्क (कल्पना) के कारण यह मानते हैं कि- "यह हमारा अज्ञान मार्ग ही कल्याण का मार्ग है तथा यह दोषवर्जित और दूसरे मतवादियों से खण्डन करने योग्य नहीं है । तथा यह अज्ञान मार्ग ही उत्तमगुण युक्त और सत्य है, क्योंकि यह यथावस्थित अर्थ को बतलाता है ।" वे अज्ञानवादी ऐसा क्यों कहते हैं ? समाधान यह है कि-वे दुर्मति यानी विपरीत बुद्धिवाले हैं ॥२१।। - साम्प्रतमज्ञानवादिनां ज्ञानवादी स्पष्टमेवानर्थाभिधित्सयाऽऽह - ___ - अब ज्ञानवादी, अज्ञानवादी का स्पष्ट रूप से अनर्थ बताने के लिए कहता है । एवं तक्काइ साहिता धम्माधम्मे अकोविया । दुक्खं ते 'नाइतुटुंति सउणी पंजरं जहा ॥२२॥ छाया - एवं तर्केः साधयन्तो धर्माधर्मयोरकोविदाः । दुःखं ते नाति त्रोटयन्ति शकुनिः पञ्जरं यथा ॥ व्याकरण - (एवं) अव्यय (तक्काइ) करण (साहिता) अज्ञानवादी का विशेषण (धम्माधम्मे अकोविया) अज्ञानवादी का विशेषण (ते) अज्ञानवादी का विशेषण सर्वनाम (दुक्खं) कर्म (न) अव्यय (अइतुटूंति) क्रिया (जहा) उपमावाचक अव्यय (सउणी) उपमान-कर्ता (पंजरं) कर्म । अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (तक्काइ) तर्क के द्वारा (साहिता) अपने मत को मोक्षपद सिद्ध करते हुए (धम्माधम्मे अकोविया) धर्म तथा अधर्म को न जाननेवाले (ते) वे अज्ञानवादी (दुक्खं) दुःख को (नाइतुटृति) अत्यन्त नहीं तोड़ सकते हैं (जहा) जैसे (सउणी) पक्षी (पंजर) पीजरे को नहीं तोड़ सकता है। भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से अपने मत को मोक्षप्रद सिद्ध करते हुए, धर्म तथा अधर्म को न जाननेवाले अज्ञानवादी, कर्म बन्धन को नहीं तोड़ सकते हैं, जैसे पक्षी पीजरे को नहीं तोड़ सकता है। यदि प्रत्येक भूतों को अचेतन म्तर्कया स्वकीयविकल्पनया साधयन्तः प्रतिपादयन्तो धर्मे क्षान्त्यादिकधर्मे च जीवोपमर्दापादिते पापे अकोविदा अनिपुणाः, दुःखमसातोदयलक्षणं तद्धेतुं वा मिथ्यात्वाद्युपचितकर्मबन्धनं नातित्रोटयन्ति। अतिशयेनैतद् व्यवस्थितं तथा ते न त्रोटयन्ति-अपनयन्तीति । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा पञ्जरस्थः शकुनिः पञ्जरं बोटयितुं पञ्जरबन्धनादात्मानं मोचयितुं नालम्, एवमसावपि संसारपञ्जरादात्मानं मोचयितुं नालमिति ।।२२।। टीकार्थ - पूर्वोक्त न्याय से अपनी कल्पना के द्वारा अपने मत को मोक्षप्रद सिद्ध करते हुए, तथा क्षान्ति आदि धर्म और जीवों के घात से उत्पन्न पाप को जानने में अनिपण वे अज्ञानवादी. मिथ्यात्व कर्म-बन्धन को नहीं तोड़ सकते हैं । यह अत्यन्त निश्चित है । इस विषय में शास्त्रकार दृष्टान्त बतलाते हैं- जैसे पींजरे में रहनेवाला पक्षी पीजरे को तोड़कर उससे अपने को मुक्त करने में समर्थ नहीं है, इसी तरह वह अज्ञानवादी संसार-रूपी पीजरे से अपने को मुक्त करने में समर्थ नहीं है ॥२२॥ 1. णातिवट्टति चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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