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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशके गाथा २१ परसमयवक्तव्यतायामज्ञानवादाधिकारः करते हैं । इस प्रकार असत् कर्म का अनुष्ठान करनेवाले, अज्ञान को कल्याण का कारण बतानेवाले, गोशालकमतानुयायी आजीविक आदि, जो संयम मार्ग अथवा सद्धर्म, मोक्षप्राप्ति के लिए सब प्रकार से सरल है, उसको प्राप्त नहीं करते हैं । अथवा अज्ञानान्ध तथा ज्ञान को मिथ्या बतानेवाले वे अन्यदर्शनी, मोक्ष प्राप्ति के लिए सबसे सरल मार्ग जो सत्य है, उसे वे नहीं बोलते हैं । पूर्वोक्त अज्ञानवादी जिस अज्ञान को कल्याण का कारण बतलाते हैं, उसके ६७ भेद होते हैं । उन भेदों को इस उपाय से जानना चाहिए। जैसे कि- सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य इन सात प्रकारों से जीव आदि पदार्थ नहीं जाने जा सकते हैं और उनको जानने से भी कोई प्रयोजन नहीं है । इसका संचार इस प्रकार करना चाहिए - जीव सत् है, यह कौन जानता है ? और यह जानने से भी क्या फल है ? तथा जीव, असत् है यह कौन जानता है ? और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार सदसत् आदि भेदों का भी जीव में संचार करना चाहिए । इसी तरह अजीव आदि पदार्थों में भी प्रत्येक के सात विकल्प कहने चाहिए, अतः नव सप्तक मिलकर अज्ञान के ६३ भेद होते हैं। इन ६३ भेदों में दूसरे ये चार और भी भेद मिलाये जाते हैं, जैसे कि- " (१) भाव की उत्पत्ति सत् होती है, यह कौन जानता है ? अथवा यह जानने से भी क्या फल ? (२) तथा भाव की उत्पत्ति असत् होती है, यह कौन जानता है ? अथवा यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (३) तथा भाव की उत्पत्ति सदसत् होती है, यह कौन जानता है ? और यह जानने से भी क्या फल है ? (४) एवं भाव की उत्पत्ति अवक्तव्य होती है, यह कौन जानता है ? और यह जानने से भी क्या फल है ?" पूर्वोक्त सात विकल्पों में से चार विकल्प तो भावोत्पत्ति के विषय में कहे गये है, परन्तु शेष तीन विकल्प नहीं कहे गये हैं, क्योंकि शेष तीन विकल्प, पदार्थ की उत्पत्ति होने के पश्चात् उस पदार्थ के अवयव की अपेक्षा से होते हैं। इसलिए भावोत्पत्ति के विषय में वे सम्भव नहीं हैं । उक्त सात विकल्पों में जो पहला विकल्प है कि- "जीव सत् है, यह कौन जानता है ?" इसका अर्थ यह है कि किसी भी जीव को ऐसा विशिष्ट ज्ञान नहीं है, जो वह अतीन्द्रिय जीव आदि पदार्थों को जान सकता है। तथा उनको जानने से भी कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि जीव, चाहे नित्य, सर्वगत, अमूर्त और ज्ञानादिगुणयुक्त हो अथवा इससे विपरीत हो, उससे किसी भी प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती है, अतः अज्ञान ही श्रेयस्कर है 112011 - पुनरपि तदूषणाभिधित्सयाऽऽह - और भी शास्त्रकार अज्ञानवादियों के मत में दोष बताने के लिए कहते हैं एवमेगे वियक्काहिं, नो अन्नं पज्जुवासिया । अप्पणो य वियक्काहिं, अयमंजू हि दुम्मई - छाया - एवमेके वितर्काभिर्नाऽन्यं पर्य्युपासते । आत्मनश्च वितर्काभिरयमृजुर्हि दुर्मतयः ॥ व्याकरण - ( एवं ) अव्यय ( एगे दुम्मई) कर्ता के विशेषण (वियक्काहिं ) ( अप्पणी) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त (य) अव्यय ( वियक्काहिं ) हेतु तृतीयान्त (अयमंजू हि ) अज्ञानवाद का विशेषण | ।।२१।। तृतीयान्त (नो) अव्यय ( अन्नं) कर्म (पज्जुवासिया) क्रिया अन्वयार्थ - ( एगे दुम्मई) कोई दुर्बुद्धि ( एवं ) इस प्रकार के (वियक्काहिं) वितर्क के कारण (नो अन्नं पज्जुवासिया) दूसरे अर्थात् ज्ञानवादी की सेवा नहीं करते हैं (अप्पणो य) वे अपने (वियक्कार्हि) वितर्क के कारण (अयमंजू हि ) यह अज्ञानवाद ही यथार्थ है, यह मानते हैं । भावार्थ- कोई दुर्बुद्धि जीव, पूर्वोक्त विकल्पों के कारण ज्ञानवादी की सेवा नहीं करते हैं, वे उक्त विकल्पों के कारण "यह अज्ञानवाद ही सरल मार्ग है ।" यह मानते हैं । टीका - एवमनन्तरोक्तया नीत्या एके- केचनाज्ञानिकाः वितर्काभि: मीमांसाभिः स्वोत्प्रेक्षिताभिरसत्कल्पनाभि: परमन्यमार्हतादिकं ज्ञानवादिनं न पर्युपासते न सेवन्ते स्वावलेपग्रहग्रस्ताः वयमेव तत्त्वज्ञानाभिज्ञा: नापर: कश्चिदित्येवं नान्यं पर्युपासत इति । तथाऽऽत्मीयैर्वितकैरेवमभ्युपगतवन्तो-यथा अयमेव अस्मदीयोऽज्ञानमेव श्रेय इत्येवमात्मको ६५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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