SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशके गाथा २० एवं दृष्टान्तं प्रसाध्य दाष्टन्तिकमर्थं दर्शयितुमाह इस प्रकार दृष्टान्त बताकर शास्त्रकार अब दान्त बताने के लिए कहते हैं एवमेगे णियायट्ठी, धम्ममाराहगा वयं । अदुवा अहम्ममावज्जे ण ते सव्वज्जुयं वए - परसमयवक्तव्यतायामज्ञानवादाधिकारः 112011 छाया - एवमेके नियागार्थिनो धर्माराधकाः, वयम् । अथवाऽधर्ममापद्येरन् न ते सर्वर्जुकं व्रजेयुः ॥ व्याकरण - ( एवं ) अव्यय ( एगे ) कर्ता का विशेषण (णियायट्ठी) कर्ता का विशेषण (धम्मं ) कर्म (आराहगा ) ( वयं) कर्ता के विशेषण (अदुवा ) अव्यय ( अहम्मं ) कर्म (आवज्जे) क्रिया (ण) अव्यय (ते) कर्ता का विशेषण (सव्वज्जुयं) कर्म (वए) क्रिया । - अन्वयार्थ - ( एवं) इस प्रकार (एगे) कोई (णियायट्ठी) मोक्षार्थी कहते हैं कि (वयं) हम ( धम्ममाराहगा ) धर्म के आराधक हैं (अदुवा ) परन्तु वे ( अहम्ममावज्जे) अधर्म को प्राप्त करते हैं ( सव्वज्जुयं) सब प्रकार से सरल मार्ग को (ण ते वए) वे नहीं प्राप्त करते हैं। भावार्थ - इस प्रकार कोई मोक्षार्थी कहते हैं कि- हम धर्म के आराधक हैं, परन्तु धर्म की आराधना तो दूर रही, वे अधर्म को ही प्राप्त करते हैं। वे सब प्रकार से सरल मार्ग संयम को प्राप्त नहीं करते हैं । ६४ टीका - एवमिति पूर्वोक्तार्थोपप्रदर्शने, एवं भावमूढाः भावान्धाश्चैके आजीविकादयः णियायट्ठी' त्ति नियागोमोक्षः सद्धर्मो वा तदर्थिनः । ते किल वयं सद्धर्माराधका इत्येवं सन्धाय प्रव्रज्यायामुद्यताः सन्तः पृथिव्यम्बुवनस्पत्यादिकायोपमर्देन पचनपाचनादिक्रियासु प्रवृत्ताः सन्तस्तत् स्वयमनुतिष्ठन्ति अन्येषां चोपदिशन्ति येनाऽभिप्रेताया : मोक्षावाप्तेर्भ्रश्यन्ति । अथवाऽऽस्तां तावद् मोक्षाभावः त एवं प्रवर्तमाना अधर्मं पापमापद्येरन्, सम्भावनायामुत्पन्नेन लिङ्प्रत्ययेनैतद्दर्शयति- एतदपरं तेषामनर्थान्तरं सम्भाव्यते यदुत विवक्षितार्थाभावतया विपरीतार्थावाप्तेः पापोपादानमिति । अपि च- त एवमसदनुष्ठायिन आजीविकादयो गोशालकमतानुसारिणोऽज्ञानवादप्रवृत्ताः सर्वैः प्रकारैर्ऋजुः प्रगुणो विवक्षितमोक्षगमनं प्रत्यकुटिलः सर्वर्जुः - संयमः सद्धर्मो वा तं सर्वर्जुकं ते 'न व्रजेयुः ' न प्राप्नुयुरित्युक्तम्भवति । यदि वा - सर्वर्जुकं सत्यं तत्तेऽज्ञानान्धाः ज्ञानापलापिनो न वदेयुरिति एते चाज्ञानिकाः सप्तषष्टिभेदा भवन्ति, ते च भेदा अमुनोपायेन प्रदर्शनीयाः, तद्यथा-जीवादयो नव पदार्थाः, 'सत्, 'असत्, सदसत्, 'अवक्तव्यः, “सदवक्तव्यः, ६असदवक्तव्य, ̈सदसदवक्तव्यः इत्येतैः सप्तभिः प्रकारैर्विज्ञातुं न शक्यन्ते, न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति, भावना चेयम्सन् जीव इति को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन ? असन् जीव इति को वेत्ति ? किंवा तेन ज्ञातेनेत्यादि । एवमजीवादिष्वपि प्रत्येकं सप्त विकल्पाः, नव सप्तकास्त्रिषष्टिः । अमी चान्ये चत्वारस्त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, तद्यथासती भावोत्पत्तिरिति को जानाति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? एवमसतीसदसत्यवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को जानाति ? किंवाऽनया ज्ञातयेति । शेषविकल्पत्रयं तूत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न सम्भवतीति नोक्तम् । एतच्चतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तषष्टिर्भवति । तत्र सन् जीव इति को वेत्तीत्यस्यायमर्थो न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियान् जीवादीनवभोत्स्यते न च तैज्ञतैः किञ्चित्फलमस्ति, तथाहि - यदि नित्यः सर्वगतोऽमूर्तो ज्ञानादिगुणोपेत एतद्गुणव्यतिरिक्तो वा ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति ? तस्मादज्ञानमेव श्रेय इति ॥ २०॥ - टीकार्थ इस गाथा में 'एवं' शब्द पूर्वोक्त अर्थ को प्रदर्शित करने के लिए है । पूर्वोक्त प्रकार से जो भावमूढ़ और भावान्ध आजीविक आदि हैं वे, नियाग यानी मोक्ष अथवा सद्धर्म को प्राप्त करने की इच्छा करते हैं और वे "हम उत्तम धर्म के आराधक हैं।" यह मानकर प्रव्रज्या धारण करते हैं। वे प्रव्रजित होकर भी पृथिवी जल और वनस्पतिकायों का विनाशपूर्वक पचन, पाचन आदि क्रिया में प्रवृत्त होकर स्वयं ऐसे कार्य्य का अनुष्ठान करते हैं और दूसरे को भी उपदेश करते जिससे वे इष्ट मोक्ष की प्राप्ति से भ्रष्ट हो जाते हैं। अथवा मोक्ष की प्राप्ति होना तो दूर रहा, वे इस प्रकार प्रवृत्ति करते हुए अधर्म - पाप को ही प्राप्त करते हैं । इस गाथा में 'आवज्जे', इस पद में सम्भावना अर्थ में लिङ् लकार हुआ है, इसके द्वारा शास्त्रकार यह दिखलाते हैं कि, उन आजीविकमतवालों को यह दूसरा अनर्थ भी सम्भव है कि वे इष्ट अर्थ को न पाकर उससे विपरीत पापरूप अनर्थ को प्राप्त
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy