SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशके गाथा १८-१९ परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः वह दृष्टान्त द्वारा बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं व मूढे जहा जंतू, मूढे णेयाणुगामिए । 1 दोवि एए अकोविया, तिव्वं सोयं नियच्छइ छाया व्याकरण - (वणे) अधिकरण (मूढे) जन्तु का विशेषण (जहा) अव्यय (जंतू) कर्ता (मूढे णेयाणुगामिए) जन्तु का विशेषण ( दोवि एए, अकोविया) ये तीनों पद मूढ़ो के विशेषण हैं (तिव्वं) शोक का विशेषण (सोयं) कर्म ( नियच्छइ) क्रिया । - वने मूढो यथा जन्तुर्मूढनेत्रानुगामिकः । द्वावप्येतावकोविदो तीव्रं शोकं नियच्छतः ॥ अन्वयार्थ - ( जहा ) जैसे (वणे) वन में (मूढे) दिशामूढ़ (जंतू) प्राणी ( मूढे णेयाणुगामिए) दिशा मूढ़ नेता के पीछे चलता है तो (एए दोवि) वे दोनों ही (अकोविया) मार्ग नहीं जाननेवाले हैं, इसलिए वे (तिव्वं सोयं नियच्छइ) तीव्र शोक को अवश्य प्राप्त करते हैं । भावार्थ - जैसे वन में दिशामूढ़ प्राणी, दूसरे दिशामूढ़ प्राणी के पीछे चलता है, तो वे दोनों ही मार्ग न जानने के कारण, तीव्र दुःख को प्राप्त करते हैं । टीका वनेऽटव्यां यथा कश्चिन्मूढो जन्तुः प्राणी दिक्परिच्छेदं कर्तुमसमर्थः स एवंभूतो यदा परं मूढमेव नेतारमनुगच्छति तदा द्वावप्यकोविदौ सम्यग् ज्ञानानिपुणौ सन्तौ तीव्रमसह्यं स्रोतो गहनं शोकं वा नियच्छतो निश्चयेन गच्छतः प्राप्नुतः अज्ञानावृतत्वादेवं तेऽप्यज्ञानवादिन आत्मीयं मार्गं शोभनत्वेन निर्धारयन्तः परकीयं चाशोभनत्वेन जानानाः स्वयं मूढाः सन्तः परानपि मोहयन्तीति ॥ १८ ॥ - ।।१८।। टीकार्थ जैसे जंगल में दिशा के निश्चय करने में असमर्थ कोई मूढ़ जीव, जब दूसरे मूढ़ के ही पीछे चलता है, तब वे दोनों ही मार्ग जानने में अच्छी तरह निपुण न होने के कारण असह्य दुःख या घोर जङ्गल को प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे अज्ञान से आवृत हैं, इसी तरह अपने मार्ग को शोभन तथा दूसरे के मार्ग को अशोभन समझते हुए वे अज्ञानवादी स्वयं मूढ़ हैं और दूसरे को भी मोहित करते हैं ||१८|| - अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमाह इसी विषय में शास्त्रकार दूसरा दृष्टान्त देते हैं अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणुगच्छइ । आवज्जे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ।। १९ ।। 1 छाया - अन्धोऽन्धं पन्थानं नयन् दूरमध्वानमनुगच्छति । आपद्यत उत्पथं जन्तुरथवा पन्थानमनुगामिकः ॥ व्याकरण - ( अंधो) कर्ता (अंध) कर्म (प) कर्म ( णितो) कर्ता का विशेषण (दूरं) क्रिया विशेषण (अद्धा) कर्म (अणुगच्छइ) क्रिया (आवज्जे) क्रिया (उप्पहं) कर्म (जंतू) कर्ता (अदुवा ) अव्यय ( पंथाणुगामिए) कर्ता का विशेषण । 1. दुहतो चू. I अन्वयार्थ - (अंध) अंधे मनुष्य को (पहं) मार्ग में (र्णितो) ले जाता हुआ (अंधो) अंधा पुरुष (दूरं) जहाँ जाना है वहाँ से दूर तक (अद्धाणुगच्छइ) मार्ग में चला जाता है (जंतू) तथा वह प्राणी (उप्पहं) उत्पथ को (आवज्जे) प्राप्त करता है (अदुवा ) अथवा ( पंथाणुगामिए) अन्य मार्ग में चला जाता हैं । भावार्थ - जैसे स्वयं अंधा मनुष्य, मार्ग में दूसरे अन्धे को ले जाता हुआ, जहाँ जाना है वहाँ से दूर देश चला जाता है, अथवा उत्पथ को प्राप्त करता है अथवा अन्य मार्ग में चला जाता है । टीका यथाऽन्धः स्वयमपरमन्धं पन्थानं नयन् दूरमध्वानं विवक्षितादध्वनः परतरं गच्छति, तथोत्पथमापद्यते जन्तुरन्धः । अथवा परं पन्थानमनुगच्छेत्, न विवक्षितमेवाध्वानमनुयायादिति ॥१९॥ टीकार्थ जैसे स्वयं अंध मनुष्य, दूसरे अन्धे को मार्ग में ले जाता हुआ, जिस मार्ग से जाना है उससे भिन्न दूसरे मार्ग में चला जाता है तथा उत्पथ को प्राप्त करता है अथवा अन्य मार्ग में चला जाता है, परंतु जिस मार्ग से जाना है, उसी से नहीं जाता है ||१९|| - ६३
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy