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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २३-२४ परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः - अधुना सामान्येनैकान्तवादिमतदूषणार्थमाह - - अब सूत्रकार सामान्य रूप से सभी एकान्तवादियों के मत को दूषित करने के लिए कहते हैं - सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया ॥२३॥ छाया - स्वकं स्वकं प्रशंसन्तो गर्हयन्तः परं वचः । ये तु तत्र विद्वस्यन्ते संसारं ते व्युच्छ्रिताः ॥ व्याकरण - (सयं सयं) कर्म (पसंसंता) कर्ता का विशेषण (गरहंता) कर्ता का विशेषण (परं वयं) गर्हण क्रिया का कर्म (जे) कर्ता का बोधक सर्वनाम (उ) अव्यय (संसार) कर्म (विउस्सिया) कर्ता का विशेषण (ते) कर्ता का बोधक सर्वनाम । ___अन्वयार्थ - (सयं सयं) अपने-अपने मत की (पसंसंता) प्रशंसा करते हुए (परं वयं) और दूसरे के वचन की (गरहंता) निन्दा करते हुए (जे उ) जो लोग (तत्थ) इस विषय में (विउस्संति) अपना पाण्डित्य प्रकट करते हैं (ते) वे (संसारं) संसार में (विउस्सिया) अति दृढ़ रूप से बंधे हुए हैं। भावार्थ - अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के वचन की निन्दा करनेवाले जो अन्यतीर्थी अपने मत की स्थापना और पर मत के खण्डन करने में विद्वत्ता दिखाते हैं, वे संसार में दृढ़ रूप से बँधे हुए हैं। टीका - स्वकं स्वकमात्मीयमात्मीयं दर्शनमभ्युपगतं प्रशंसन्तो वर्णयन्तः समर्थयन्तो वा, तथा गहमाणाः निन्दन्तः परकीयां वाचं, तथा हि- साङ्ख्याः सर्वस्याविर्भावतिरोभाववादिनः सर्वं वस्तु क्षणिकं निरन्वयविनश्वरं चेत्येवं वादिनो बौद्धान् दूषयन्ति तेऽपि नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरहात् साङ्ख्यान्, एवमन्येऽपि द्रष्टव्या इति । तदेवं 'ये' एकान्तवादिनः, तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च, तत्रैव तेष्वेवाऽऽत्मीयात्मीयेषु दर्शनेषु प्रशंसां कुर्वाणाः परवाचं च विगर्हमाणाः, विद्वस्यन्ते विद्वांस इवाऽऽचरन्ति, तेषु वा विशेषेणोशन्ति-स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिवातं वदन्ति, ते चैवं वादिनः संसारं चतुर्गतिभेदेन संसृतिरूपं विविधम्-अनेकप्रकारम्, उत प्राबल्येन श्रिताः सम्बद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताः संसारान्तर्वर्तिनः सर्वदा भवन्तीत्यर्थः ॥२३।। टीकार्थ - अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हुए अन्यदर्शनीगण, दूसरे दार्शनिकों के वचन की निन्दा करते हैं। जैसे समस्त पदार्थों का आविर्भाव और तिरोभाव माननेवाले साङ्ख्यवादी, "सब पदार्थ क्षणिक हैं और निरन्वय विनाशी हैं ।" ऐसा कहनेवाले बौद्धों की निन्दा करते हैं, तथा बौद्ध भी "नित्यपदार्थ न तो क्रमशः अर्थ क्रिया कर सकता है और न युगपत् कर सकता है ।" इत्यादि दोष देकर साङ्ख्यवादियों की निन्दा करते हैं। इसी तरह दूसरे दार्शनिकों को भी जानना चाहिए । यहाँ 'तु' शब्द अवधारणार्थक और भिन्न क्रम है, इसलिए अपने-अपने दर्शनों की प्रशंसा और दूसरों के वचनों की निन्दा करते हुए, जो एकान्तवादी विद्वान् के समान आचरण करते हैं अथवा अपने शास्त्र के पक्ष में विशिष्ट युक्तियाँ बतलाते हैं, वे ऐसा कहनेवाले अन्यदर्शनी, चारगतिवाले इस संसार में अनेक प्रकार से अति दृढ़ रूप से बँधे हैं । अथवा वे इस संसार में सदा निवास करते हैं । यह इस गाथा का अर्थ है ॥२३॥ - साम्प्रतं यदुक्तं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकारे 'कर्म-चयं न गच्छति चतुर्विधं भिक्षुसमय' इति तदधिकृत्याह - नियुक्तिकार ने उद्देशक के अधिकार में जो यह कहा है कि- "चार प्रकार के कर्म बन्धनदाता नहीं होते हैं, यह भिक्षुओं का सिद्धान्त है ।" अब इसी विषय को लेकर सूत्रकार कहते हैंअहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं । कम्मचिंतापणट्ठाणं दुक्खखंधविवद्धणं संसारस्स पवडणं ॥२४॥ 1. संसरते चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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