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स्वर्णगिरि पर अब जैन मन्दिरों के अतिरिक्त शिवालय, देवी मन्दिर, हनुमान मंदिर, राजमहल, पानी की टंकियां और मस्जिद के सिवाय वीरान है । इधर जालोर के क्षेत्रों में श्वेताम्बर मूत्तिपूजक साधुओं का विहार विगत शताब्दियों में कम होने से अमूत्तिपूजक सम्प्रदाय का प्राबल्य हो गया और दुर्ग स्थित जिनालयों की पूजा अर्चना बन्द सी हो गई।
जैन संघ की उपेक्षा से दुर्ग स्थित जिनालयों में राजकीय कर्मचारियों ने अपना अधिकृत आवास और शस्त्रास्त्र एवं बारूद रखने का गुदाम बना लिया। २०वीं शताब्दी से पूर्व तीन दशकों में जिनालयों पर राज का ही आधिपत्य रहा।
विक्रम सं० १९३३ का चातुर्मास राजेन्द्रकोश के निर्माता श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिजी महाराज का जालोर में हुआ वे स्वाध्याय ध्यान हेतु सोनागिरि की कन्दराओं में अक्सर पधारते थे। आश्विन मास में एक दिन आप किलेदार विजयसिंह का आमंत्रण पाकर किले में पधारे। यक्षवसति प्रासाद का गगनचुम्बी जिनालय और अष्टापदावतार भी दृष्टिगोचर हुआ। नीचे आने पर अन्वेषण से स्पष्ट हो गया कि ये तो जिनालय हैं। सरल आत्मा किलेदार विजयसिंह का सहकार मिला, जिनालयों में जिनेश्वर भगवान की आशातना देखी और आचार्यश्री ने आशातना निवारण कराने का निर्णय कर लिया।
सं० १९३३ के पोष मास में जोधपुर नरेश महाराजा यशवंतसिंह ने स्वर्णगिरि के तीनों जिनालयों से शस्त्र सामग्री निकलवाकर उन्हें संघ को समर्पित कर दिया। इसके बाद जीर्णोद्धार कार्य सम्पन्न हुआ सं० १९३३ के माघ सुदि १ सोमवार को विधिपूर्वक तीनों जिनालयों में जिनबिम्बों को प्रतिष्ठा हुई। इस प्रकार आचार्य महाराज द्वारा प्राचीन तीर्थ का पुनरुद्धार संपन्न हुआ।
इस तीर्थ के अष्टापदावतार चैत्य में निम्न शिलालेख लगा है :संवच्छभे नय स्त्रिशन्नन्दक विक्रमाद्वरे, माघ मासे सिते पक्षे चन्द्र प्रतिपदा तिथौ ॥१॥ जालंधरे (जालउरे ) गढे श्रीमान् श्रीयशस्वन्तसिंह राट् तेजसा यु मणिः साक्षात् खण्डयामासया रिपून ॥२॥ विजयसिंहश्च किल्ला-दार धर्मी महाबली, तस्मिन्नवसरे संघे जीर्णोद्धारश्च कारितः ॥३॥ चैत्यं चतुर्मुखं सूरि राजेन्द्रण प्रतिष्ठितम्, एवं पार्श्व चैत्येऽपि प्रतिष्ठा कारितावरा ॥४॥