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५. उदयहर्ष कृत स्तवन में
___“जी हो साचोरे सोभा धरे, जालोरे जस वास"
६. खुश्याल कृत दादा साहब के ७९ गाथा के छंद (सं० १८२३ ) में
पूजत थुभ पाटले खंभायत सुपाव ए जालोर सेतराव में जपंत चित्त चाव ए
७. उ० क्षमाकल्याणजी कृत श्री जिनकुशलसूरि वृहत्स्तोत्र ( गा० २२ ) में
श्री युक्त जेसलाद्रौ प्रवर जिनगृहे पत्तने लौद्रवाये । सेनावे कोटड़े वा विदित पुरवरे चार बीकादिनेरे । मूलनाणे मरोट्टे गिरि विषमपुरे बाहड़ाद्य च मेरौ । जालोरे पुष्करिण्यां वर महिमपुरे श्री फलाद्धिकायाम् ॥१४॥
८. अमरसिन्धुर कृत दादाजी छंद ( गा० ६५ ) में
लुलि नै पाय लागंत लाहोर, जागंती जोत गुरु जालोर । अंचल गच्छ
मेरुतुगसूरिजी ने लघुशतपदी की प्रशस्ति में लिखा है कि जब अशाता के कारणवश आचार्य श्री महेन्द्रसिंह तिमिरवाटक में विराजते थे, तब जालोर का संघ वन्दनार्थ आया। आचार्य श्री ने एक ही व्याख्यान में उनके ८२ प्रश्नों का एवं एकान्त में उनके दो प्रश्नों का समाधान कर दिया।
श्री अजितदेवसूरि को सं० १३१६ में जावालिपुर-स्वर्ण गिरि में गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया गया। संघ के आग्रह से उन्होंने वहीं चातुर्मास किया फिर पत्तन पधार कर अपने १५ शिष्यों को उपाध्याय पद दिया।
आचार्य अजितसिंहसूरि जब जालोर में थे उस समय अनेक स्थानों से उन्हें वन्दनार्थ संघ आया करता। संघ के सभी लोग तत्कालीन राजा समरसिंह से साक्षात्कार करते और उनके समक्ष भेट नजराना अवश्य रखते। राजा उन लोगों के मुंह से गुरु महाराज के विषय में त्याग तपस्या की चहुत कुछ जानकारी प्राप्त करता और प्रभावित हो कर धर्म-देशना श्रवण करने आता और फल स्वरूप जैन धर्म को स्वीकार कर अपने देश में अमारि उद्घोषणा कराता रहता। राजा के अनुकरण में सभी वर्ण के लोग जैन धर्म का आचार पालन करने लगे। मेरुतुंगसूरिजी लिखते हैं कि नमस्कार-स्मरणादि प्रवृत्तियों के कारण आज भी शाणादि गांव धर्मक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं।
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