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पारख, वछावत, सेठिया मोदी, संखवालेचा गोत्रीय कितने तत्कालीन श्रावकों के नाम भी हैं।
इसी वर्ष फाल्गुन सुदि १२ के श्री गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय ( जालोर दुर्ग) के अभिलेख में महाराजाधिराज मानसिंह और महाराजकुमार छत्र सिंह के विजय राज्य में वन्दा मुहता अखयचन्द्र लक्ष्मीचन्द, द्वारा प्रासाद निर्माण और भट्टारक श्री जिनहर्षसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित होने का उल्लेख है।
युग प्रधानाचार्य गुर्वावलो के विशद वर्णन में हम देख चुके हैं कि जालोर स्वर्णगिरि में अनेक बार मन्दिरों, देहरियों, प्रतिमाओं आदि की सैकड़ों की संख्या में प्रतिष्ठा हुई है। यहाँ प्रारम्भ से ही खरतर गच्छ का प्रभाव सर्वाधिक रहा है। प्राचीन साहित्य में जालोर को विधिमार्ग रूपी कमल का सरोवर बतलाया गया है। यहाँ श्री जिनेश्वरसूरि, श्री जिनप्रबोधसूरि आदि अनेक महान् पूज्य पुरुषों का स्वर्गवास हुआ है और उनकी प्रतिमाएं, स्तूप-चरण आदि की प्रतिष्ठाएं हुई जिनका वर्णन हम आगे कर चुके हैं। काल की कराल गति से स्वर्णगिरि की हजारों इमारतें, बहुत से प्राचीनतम मन्दिरादि ध्वस्त कर भूमिसात् कर दिए गए जिनका नाम निशान भी नहीं रहा तो उन सबका अस्तित्व समाप्त होना स्वाभाविक था। सतरहवीं शताब्दी से फिर स्वर्णगिरि के मन्दिरों का जीर्णोद्धारादि हुआ और उनके चरण-स्तूपादि स्थापित हुए। सतरहवीं शताब्दी में यहाँ दादा साहब के स्तूप चरणादि होने के उल्लेख फिर मिलते हैं। आज खरतरावास के मन्दिर में दादा साहब के चरण-छतरी है। स्वतंत्र दादावाड़ी की खोज आवश्यक है जिसका अस्तित्व निम्नोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है। १. राजसमुद्र कृत स्तवन में स्वर्णगिरि पर दादा स्तुभ का उल्लेख
जी हो वीरमपुर सोवनगिरे दादा योधपुरे विलसंत । २. राजसागर कृत गा० ९ के दादा स्तवन में___ अरे लाल जोधपुरै नै मेडतं, जैतारण ने नागोर रे लाल ।
सोजत नै पालीपुरे, जालोर श्री साचोर रे लाल ॥४॥ ३. राजहर्ष कृत श्री जिनकुशल सूरि अष्टोत्तर शत स्थाने स्थुभ नाम गभित स्तवन में
"सोवनगिरि मंडण सोरोही, नूतनपुरनित चढतउ नूर" ४. अभयसोम कृत जिनकुशलसूरि छंद में
"जालोर जेति सिंधरी, खंभाइते खराखरी"
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