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.. [ ६८ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क ६ स्नेह की बात न करे (१-५)। संन्यासी को दंड, कौपीन तथा खड़ाऊ आदि धारण करने का नियम बताया है ( ६-१०)। संन्यासी को भिक्षा के नियम और धातु के पात्र में खाने का दोष बताया है (११-१६)। संन्यासी को सन्ध्या जप का विधान, भगवान का ध्यान जीव मात्र पर समदृष्टि रखने का आदेश दिया है
(२०-२३)। ७ योगवर्णनम्
६६२ वर्णाश्रम धर्म कहकर जिससे मोक्ष हो और पाप नाश हो ऐसे योगाभ्यास की क्रिया रोज करनी चाहिये (१-३)। प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान बतला कर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में जो भगवान हैं उनका ध्यान करना लिखा है। जिस प्रकार बिना घोड़े के रथ नहीं चल सकता उसी प्रकार बिना तपस्या के केवल विद्या से शान्ति नहीं होती है। तप और विद्या दोनों इस जीव के पृष्ठ भाग है जिससे उत्तम गति को पाता है (४-११)। विद्या और तपस्या से योग में तत्पर होकर सूक्ष्म और स्थूल दोनों देह को छोड़कर