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अध्याय
[ ३३ ] प्रधानविषय
पृष्ठाङ्क पति द्वारा वाञ्छनीय है। वृद्धावस्था में पुत्र का कर्तव्य है कि उनकी शक्ति की देखरेख और सेवा करे। इस प्रकार मातृशक्ति की सद्उपयोगिता का ध्यान रखा जाय (५६-६१)। त्रियों की स्वाभाविक पवित्रता
और स्त्रियों को इन्द्र के वरदान स्त्रियों की शुद्धता के लिये बताये हैं (६२-६५)। उनके सहवास के नियम बताये गये हैं। यहां पर यह दिखाया है कि गृहस्वधर्म का आधार स्त्री ही है और गृह के यज्ञ कम स्त्री के ही साथ हो सकते हैं अतः उसी का सत्कार और मान करना चाहिये (६६-७६)। पितृ यज्ञ, अतिथि यशा, स्वाहाकार वषट्कार और हन्तकार प्राणानि होत्र विधि
से भोजन करने का आचार बताया गया है (७७-८६)। ६ वेदविद्विप्रस्य कलाज्ञस्य वर्णनम् ।
७६३ प्राणाग्नि यज्ञ की विधि बताई गई है। जिसमें इस बात का विषदीकरण किया गया कि नासिका के पन्द्रह अङ्गुली तक जीवकी कला संचरण करती जाती है इसी को षोडसी कला कहते हैं। इसी को ब्रह्मविद्या कहते हैं जो इसे जाने उसी को वेद का ज्ञाता कहते हैं। इसी को तुरीय पद और इसी में सारा संसार लीन हो जाता है। इस बात को जानने से और कुछ जानना बाकी नहीं