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संस्मरण
श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।
सम्यक् सङ्कल्पजः कामो धर्ममूलमिदंस्मृतम् ॥ मनुष्यता के विकास का स्रोत, सांस्कृतिक आधार तथा नैतिक निष्ठा श्रुतिस्मृतियों में देश, काल अवस्था भेद से बताई गई है। इसी को महर्षि याज्ञवल्क्य ने धर्म की जड़ बताई है। अर्थात् श्रुतिस्मृति प्रतिपादित मार्ग का अनुसरण, सद्आचरण, आत्मप्रेम (प्राणिमात्र में एक आत्मा का ज्ञान) और शुद्ध सङ्कल्प से जो इच्छा हो इसको धर्म का मूल बताया है।
श्रुतिशब्द से आदिज्ञान अभिप्रेत है । भगवान् का सत्यज्ञान भण्डार जिसे वेद नाम से निर्देश किया जाता है वेद के इन मन्त्रों से ही आत्मज्ञान तथा कार्यरूपी संसार का ज्ञान हुआ है । ये अव्यक्त शब्द-राशि तपस्या करते हए जिस तपस्वी को प्रथम नादस्वरूप से ज्ञात हुई उसी मन्त्रद्रष्टा की ऋषि संज्ञा हई। ऋषियों द्वारा अनन्ताकाश में आवत-तरंग रूप से लहराते हए परमेश्वर उद्गीथ रूप आदिनाद ऋषियों ने तपस्या करते-करते दिव्यश्रुति दिव्य-दृष्टि पाकर विश्व में प्रसरण किया। मन्त्रों के आवर्त (वीची तरङ्ग) के स्वरूप का देवताओं के यन्त्र द्वारा ज्ञान हो सकता है । त्रिकोण आदि जितने यन्त्र दीख पड़ते हैं वे उन उन मन्त्रों के आवर्तरूप के प्रतीक हैं, इन्हीं आवर्तों से ऋषियों ने भिन्न-भिन्न मन्त्रों का अनुसन्धान प्राप्त किया है । विद्वन्मोदतरङ्गिणी में लिखा है-"मन्त्रात्मकाहि देवाः" अर्थात् ये मन्त्र ही देवता स्वरूप हैं। आदिवैदिक मन्त्रों को श्रति शब्द से निर्देश किया है। इन्हीं मन्त्रों के संस्मरण से मनु याज्ञवल्क्यादि ऋषियों ने अपने संस्मरणों को प्रकट किया जिनको स्मृति नाम दिया गया। स्मति शक्ति का विकास स्मतिनिर्माता ऋषि मुनियों की जीवनी के अध्ययन से स्पष्ट हो जाएगा। स्मतिशक्ति का संचार उस सदाचार पर निहित है जो याज्ञवल्क्यादि का था।