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________________ ( ७ ) गुड़, घृत, जल आदि के पात्र इधर उधर बिखरे पड़े हों वहाँ एक दो रात्रि से अधिक रहना साधु को नहीं कल्पे । यदि साधारण प्रबंध किया हुआ हो तो एक मास और विशेष प्रबंध किया हुआ हो तो चार मास ठहरना कल्पता है, और इसी प्रकार मकान के दाता के लिए भी कई नियम बनाए कि किसी दुकान में यदि मकानदाता का भाग हो तो वहाँ से कोई वस्तु नहीं लेना, तथा मकानदाता साथ चल कर दूसरों के घर से कोई पदार्थ दिलावे तो उसे भी नहीं लेना, इत्यादि । इस लेख से ज्ञात होता है कि दुष्काल के पूर्व नगरों में साधुओं के रहने के लिए धर्मशाला व उपाश्रयों का अभाव ही था और साधुओं के लिए बनी हुई धर्मशालाओं एवं उपाश्रयों को आधा कर्मी समझ कर वे प्रिन्थ उसमें ठहर भी नहीं सकते थे । तथा श्रावकों के धर्म करने के लिए अपने-अपने मकानों के एक बिभाग में पौषधशालाएँ भी रहती थीं। यदि कारणवशात् कोई साधु नगर में भी जाता तो गृहस्थों के घरों में ही ठहर, कारण मिटने पर पुनः जंगलों में चला जाता था । यही कारण था कि जंगलों में रहने वाले महात्मा बिल्कुल निःस्पृही होते थे और उन्हें वस्त्र पात्रों की प्रायः आवश्यकताहो नहीं रहती थी और यदि कोई साधु ये वस्तुएँ रखता तो भी नितान्त जीर्णशीर्ण एवं परिमित ही जो कि नगण्य - सी समझी जाती थी जैसा कि कल्प सूत्रादि प्रन्थों में कहा है । पर जब से जैन श्रमणों ने नगरों में रहना शुरू किया और नगरों में उपाश्रय आवश्यक वस्त्र पात्रों की भी आवश्यकता गृहस्थों के सहवास में रहना और दूसरे बनने लगे और उन्हें पड़ी, क्योंकि एक तो अनेकानेक वस्तुओं
SR No.032653
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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