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त्यों करके उस अकाल-अटवी का अतिक्रमण किया। जक अकाल के अंत में पुनः सुकाल हुआ तब श्री संघ ने आचार्य मद्रबाहु को आमंत्रण भेज बुलवाया और पाटलीपुर नगर में एक सभा की, वहाँ दुष्काल के भीषण प्रभाव से जैन श्रमण एवं जैनागमों की जो कुछ शृंखला अस्त व्यस्त हो गई थी, उसको फिर से व्यवस्थित बनाया। आचार्य भद्रबाहु ने कई अंगों पर नियुक्तियों की रचना की, तथा बृहत्कल्प सूत्र, व्यवहारसूत्र और दशा श्रुतस्कंध सूत्र एवं तीन छेद प्रथों का भी निर्माण किया। उन छेद सूत्रों में साधुओं के प्राचार विचार एवं व्यवहार तथा विशेष साधुओं के ठहरने के लिए मकान और मकान देने वाले दाताओं के निमित्त नियम बनाए । इससे पाया जाता है कि दुष्काल के पूर्व जैन श्रमण प्रायः जंगलों में, या उपवनों में ही ठहरते थे। पर जब इतने सुदीर्घ दुष्काल समय में साधुओं का निर्वाह जंगलों में होता न देखा तो शायद् श्रीसंघ ने यह प्रार्थना की होगी कि “इस भयंकर समय में अब जंगलों में साधुओं का निर्वाह होना मुश्किल है, क्योंकि भिक्षाचर्या के कारण जंगलों से आकार भिक्षा करना या ले जाने में
आप को कठिनताओं का सामना करना पड़ेगा। अतः आप नगर में पधार जावें, इत्यादि"। यह बात संभव भी है कि उस आपत्ति के. समय में श्रमण संघ ने भी श्रीसंघ की यथोचित विनती को स्वीकार कर नगर में आकर गृहस्थों के मकानों में रहना शुरूकर , लिया हो, इसी कारण आचार्य भद्रबाहु ने इस विषय के विशेष :: नियम बनाए होंगे। आचार्य के बनाए हुए नियमों में कई एक ऐसे नियम भी हैं कि जिस मकान में गृहस्थ का धन, धान्य,...