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________________ ( २० ) लेने से उन्हें व्रतों का फल तो दूर रहा अपितु समकित से भी हाथ धो बैठना पड़ता है। ___ हमारा कोई यह सिद्धान्त नहीं कि क्रिया कुछ वस्तु ही नहीं है, पर क्रिया ऐसी की जाय कि जिस में माया, कपट, मिथ्यात्व आदि का अंश मात्र भी न हो और उसे समयानुसार सब सहूलियत से कर सकें। दूसरा यह भी तो एक कारण है कि यदि ज्ञान सहित क्रिया करे तो भी केवल एक व्यक्ति ( कर्ता ) ही अपना कल्याण कर सकता है, परन्तु धर्म प्रचार से तो अनेकों का कल्याण हो सकता है और धर्म प्रचार के लिए केवल क्रिया ही नहीं पर उसके अतिरिक्त अन्यान्य साधनों की भी आवश्यकता रहती है । देखिये ! भगवन् महावीर ने क्रिया काण्ड, मौन व्रत एवं अध्यात्म से कैवल्य ज्ञान को पैदा कर लिया पर धर्म प्रचार के लिए तो उनको भी समवसरण आदि अष्ट महा प्रतिहार्यादि की अपेक्षा अवश्य रही थी। इसी प्रकार चैत्यवासियों के समय जैन धर्म राष्ट्र-धर्म होने से उसको कुछ समयाऽनुसार आडम्बरों की भी आवश्यकता हुई हो और उन्होंने ऐसा किया भी हो तो इसमें बुरा क्या था ? आज तो बिना कुछ जरूरत के और अयोग्य होते हुए भी आडम्बरों के लिए लड़ झगड़ शासन को उन्मूल किया जा रहा है । यदि, हम लोग आज जैसे चैत्यवासियों के लिए कहते हैं वास्तव में वे वैसे ही होते तो उनका प्रकाण्ड प्रभाव राजा महाराजाओं पर शायद ही पड़ सकता ? किन्तु जब चैत्यवासियों ने अपने ही शासन कालमें करीब १०० राजाओं को एवं लाखों करोड़ों अजैनों को जैन-धर्म में दीक्षित किया तब नामधारी क्रिया ® देखो मेरा लिखा 'प्राचीन इतिहास संग्रह' भाग दूसरा।
SR No.032653
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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