SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२ ) शाह निर्मित श्राबू के मंदिरों की प्रतिष्ठा को सब लोग प्रामाणिक मान वन्दन करते थे। आचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी टीका द्रोणाचार्य , जैसे चैत्यवासियों के नायक का सन्मान कर उनसे संशोधित करवाई । ये सब उस समय के दोनों पक्षों की वर्णनीय एकता के उज्ज्वल उदाहरण हैं। ___ हाँ, बारहवीं शताब्दी में एक जिनवल्लभसरि नामक आचार्य हुए। वे पूर्व चैत्यवासी थे और चैत्यवासियों से निकल कर आचार्य अभयदेवसूरि के पास पुनः दीक्षित हुए । आपने चैत्यवासियों के विरोध में एक “संघपट्टक" नामक ग्रंथ बनाया, पर वह था आपकी प्रकृति का प्रतिबिम्ब । यदि ऐसा नहीं होता तो आपके गुरू प्राचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी टीका को जिन चैत्यवासी प्राचार्यों से संशोधित करा उनका सत्कार किया था, आप उनकी ही जिन प्रतिमा को मांस शकल * की उपमा नहीं देते और उन चैत्यवासियों के सब कर्त्तव्यों को सावद्य नहीं बतलाते । खैर ! इतना होने पर भी स्वयं आपने चित्तौड़ के किले में साधारण श्रावक की द्रव्य सहायता से बनवाये हुए विधि श्री निवृताख्य कुल सनद पद्म कल्पः । श्री द्रो सरिर नवद्य यशः परागः ॥ ९॥ शोधितवान् वृतिमिमां युक्तो विदुषां महा समुहेन । शास्त्रार्थ निष्क निकषण कष पट्टक कल्प बुद्धीनम् ।।१०॥ -अभयदेवसूरि कृत भगवती सूत्र टीका. 8 “आकृष्टुं मुग्धमीनान् वांडश पिशित वाढेवमादश्य जैन” 'संघपट्ट श्लोक २१
SR No.032653
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy