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का जबाब देना होगा की भारत में जैन धर्म ने जैन समाज का क्या उपकार किया है ।...यदि हम औरों को जैनी बनाना चाहते है तो क्या यह आवश्यक नहीं है कि हम उन्हें भी अपने ही समान धार्मिक तथा सामाजिक अधिकार प्रदान करें...हमें संसार की प्रायः खासखास भाषाओं में हमारे शास्त्र तथा जैन सिद्धान्त की पुस्तकें प्रकाशित करनी होंगी...पारा के जैन सिद्धान्त भवन को हमें एक वास्तविक सेंट्रल जैन लाइब्रेरी या म्युज़ियम बनाना होगा... हमें कौसिलों में प्रवेश, जैन त्यौहारों पर श्राम छुट्टी कराने का प्रयत्न, उपदेशकों द्वारा समाज सुधार के विचारों का प्रचार, युवकों को अन्य देशों में भेजकर उच्च श्रौद्योगिक तथा साधारण व व्यवसाय शिक्षा दिलाने की योजना, मन्दिरों के कोष में एकत्रित धनराशि का धामिक तथा समाजोद्धारक शिक्षा तथा कलाकौशल प्रचारार्थ सदुपयोग, सार्वजनिक संस्थाओं का सुप्रबन्ध, हिन्दा साहित्य का प्रचार करना चाहिये।"
अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्ध की उपयोगिता हढ़ युक्तियों से दिखाई गई थी । शिक्षा तथा शिक्षा पद्धति पर गहरा विवेचन किया गया था।
सभापति के व्याख्यान समाप्ति पर सारी उपस्थित सभा (सम्जेक्ट कमेटी ) विषय निर्धारिणी समिति मान ली गई । २६, २७, २८, २९ की शाम को पबलिक व्याख्यान श्री दिगविजयसिंहजी, प्रभुलालजी, भगवानदीनजी के होते थे और प्रात: धार्मिक सम्मेलन। ३० को महामडल का खुला अधिवेशन हुआ। ३१ को धार्मिक चर्चा २४ से ३१ तक अजिताश्रम में दोनों समय भोजन का प्रबन्ध किया जाता था। इस अधिवेशन का सारा खर्च उठाने का पुण्य मुझे प्राप्त हा था। जे. एल. जैनी अस्वस्थता के कारण पधार न सके थे; किन्तु इन्दौर से उन्होंने एक विस्तीर्ण संदेश भेजा था, जो जैन गज़ट १९१७ के १२ पृष्ठों पर प्रकाशित किया गया है। सभापति महोदय के व्याख्यान 'का अनुवाद ४० पृष्ठों में छपा हुआ है।