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________________ ' उनको राज्य विस्तार को लिप्सा बढ़ती जा रही थी, उस समय के शताब्दियों का कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं मिलता है। कारण भी स्पष्ट है कि इस घोर संघडंग के समय देशवासी जैन-अजैम सब लोग अपने २ धन प्राण और कुटुम्ब को रक्षा में दूस प्रकार लगे हुए थे कि तीर्थ आदि स्थानों को अक्षत रखना असम्भव था। पुनः जिस समय विजेता और पराजित प्रजा के बीच सद्भाव का अङ्गुर बढ़ने लगा उस समय सब लोग अपने २ धर्म और नष्टप्राय धर्म स्थानों के उद्धार में तन मन और धन से कटिबड्व हुए। मुझे जो कुछ ऐसी खोज में प्राचीन लिख प्राप्त हुए हैं उनसे ज्ञात होता है कि दिल्ली सम्राट फिरोजशाह तोघलक के समय बिहार प्रान्त में श्वेताम्बर जैनाचार्य और श्रावकों के पदम्य उत्साह एवं परिश्रम से उस प्रान्त के तीर्थों में विशेष उन्नति हुई यो। राजगृह के वैभार पर्वतोपरि थी पार्श्वनाथ खामी के मंदिर के संवत १४१२ को प्रशस्ति भी सर्व प्रथम मैंनेही प्रकाशित किया था और उस समय को परिस्थिति का वर्णन प्रशस्ति में है। ; उस समय श्री पावापुरी तीर्थ का भी जीर्णोद्धार सुचारू रूप से हुआ होगा परन्तु वर्तमान में वहां उस समय का कोई भी चिन्ह विद्यमान नहीं है। मुगल सम्राट अकबर हिन्दूधर्म के विशेष पक्षपाती थे। भाप सर्व जाति, सम्प्रदाय के प्रसिद्ध २ धर्म याचकों को अपनी राजसभा में पामखित कर सम्मानित किये थे। इनके समय में उत्तर भारत में दिगम्बरी जैनियों का अस्तित्व विशेष नहीं था। खनामख्यात पाश्चात्य विद्वान् विन्सेण्ट स्मिथ साहब ने अपनी 'अकबर' नामक पुस्तक में अकबर की राजसभा में नियों का क्या स्थान था, इस विषय पर अच्छा वर्णन लिखा है। श्वेताम्बर तपगच्छाचार्य श्री हौरविनयसूरिजी को बादशाह अकबर की तरफ से जो कुछ फरमान मिले थे वे भी प्रसिद्ध है। श्वेताम्बर खरतरगच्छाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आदि से भी सम्राट का अच्छा परिचय था, और दून लोगों के उपदेश से ही अकबर ने बरस में कई दिन सर्व प्रकार की हिंसा बंद रखने की अपने राज्य में घोषणा की थी।
SR No.032640
Book TitlePavapuri Tirth ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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