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दीवार के एक आले ( गोखले ) में भी सं० १७७२ माह सुदी १३ सोमवार को प्रतिष्ठित श्री पुंडरीक गणधर को चरणपाटुका है, और मूल वेदी के बांई तरफ को वेदो पर श्री वौर भगवान् के ११ गणधरों को चरणपादुका खुदी हुई है। यह चरणपादुकापट्ट मन्दिर के साथ संवत् १६६८ का प्रतिष्ठित है और इसी वेदी पर संवत् १८१० में श्री महेन्द्रसूरि को प्रतिष्ठित श्री देवर्षि गणि क्षमाश्रमण की पोले पाषाण को सुन्दर मूर्ति रखी हुई है। मूल मन्दिर के बीच में वेदी पर संवत् १६६८ का लेख सहित कसौटो पाषाण की अति भव्य चरणपादुका विराजमान है।
___मन्दिर के चारो कोने में चार शिखर के अधो भाग को चार कोठरियों में कई चरण और मूत्तियां हैं। इन पर के जिन लेखों के संवत् पढ़े जाते हैं उन सबों से प्रतिष्ठा समय विक्रमोय सप्तदश शताब्दि से वर्तमान शताब्दि पर्यन्त पाये जाते हैं। सिवाय इन मूर्तियों के मन्दिर में दिक्पाल ( भैरव ) शासनदेवी पादि भी विराजमान हैं। प्राचीन मन्दिर का सभा मण्डप पादि अपरिसर होने के कारण बैठने का स्थान संकुचित था जो कि अजीमगञ्ज निवासी बाबू निर्मल कुमार सिंह नवलखा ने हाल ही में मन्दिर के बहिर्भाग को विशाल बनवा कर इस कमी को पत्ति कर दी है।
[२] जलमन्दिर ... वास्तव में यह स्थान को, जैसौ कि तीर्थं पर्यटन के समय बहुत से यात्री लोगों ने मनोज और चित्ताकर्षक दृश्य को वणना एवं महिमा अपने २ पुस्तकी में की है, उसमें किञ्चिन्मान भी अतिशयोक्ति नहीं है। वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में जिस समय सरोवर स्थित कमलों का पुष्प पत्र से पूर्ण विकाश रहता है, उस समय वहां का दृश्य एक अनोखी शोभा को धारण करता है। यदि कोई भावुक उस समय अपनी शुद्धभावना और आत्म चिन्तवन के लिये जलमन्दिर में उपस्थित हो तो इस दुःखमय संसार को अशान्ति को सहज ही में भूल सकता है। मन्दिर तक पहुंचने के लिये शताब्दि हुए सरोवर के तौर से एक सुन्दर पुल बना।