________________
सौर्थ सेवा में आये हुए यात्रौ लोग पाराम से रह सकते हैं। मन्दिर के दक्षिण भोर मुनिराजों के लिये एक उपाश्रय भी बना हुया है और उसी के पीछे की तरफ आगे बढ़ कर जो एक मंजिली इमारत दृष्टिगोचर होती है वही पुरानो बनी हुई धर्मशाला है जो कि नौरन के नाम से प्रसिद्ध है।
. वर्तमान मन्दिर पांच भव्य शिखरों से सुशोभित है और दो मंजिला बना हुआ है। मन्दिर को प्रशस्ति और वहां के लेखों से स्पष्ट है कि-शाहजहां बादशाह के समय विक्रम संवत् १६६८ वैशाख सुदौ ५ सोमवार को खरतरगच्छा. चार्य श्री जिनराज सूरिजी की अध्यक्षता में बिहार निवासी श्वेताम्बर श्रीसंघ मे यह “वर विमानाकार” मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई थो उस समय कमललाभोपाध्याय एवं पं० लब्धकौति भादि कई विद्वान साधु मंडली उपस्थित थी, जिन लोगों का प्रशस्ति आदि लेखों में उल्लेख मिलता है। मन्दिर को प्रशस्ति लगभग सवा फुट लम्बी और एक फुट चौड़ी श्याम रङ्ग को शिला पर सुन्दर अक्षरों में खुदी हुई है। बड़े हर्ष का विषय है कि ऐसे तीर्थराज के मन्दिर को प्रशस्ति को उड्वार करने का मुझे ही प्रथम सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिसको मैंने "जैन लेख संग्रह" भा. १ के पृष्ठ ४६-४७ में प्रकाशित किया था। पश्चात् कई वर्षों बाद सुयोग मिलने पर उस प्रशस्ति को शिला को अति सावधानी पूर्वक वेदो के नीचे से निकलवा कर मन्दिर की दीवार पर यथा स्थान में स्थापित कर दी गई, और सम्पूर्ण प्रशस्ति पुनः लेख संग्रह के रय खण्ड पृष्ठ १५८-६ ० में प्रकाशित हुई है। .....' मूल मन्दिर में वेदी के मध्य भाग में मूलनायक श्री महावीर स्वामी को श्वेत पाषाणमय मनोन मूर्ति विराजमान है, और दाहिने तरफ श्री आदिनाथ को एवं बांई तस्फ श्री शान्तिनाथ को उसी प्रकार श्वेत पाषाण की मूर्तियां हैं। इनके अतिरिक्त वहां कई धातु को पंचतौर्थियां और छोटी २ मूर्तियां रखी हुई हैं। मल वेदी के दाहिने तरफ को वेदी में सं० १६४५ बैशाख शक ३ गुरुवार का प्रतिष्ठित एक विशाल चरणयुगल विराजमान है। मूल गभार के दक्षिण को