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वर्षा के चार मास व्यतीत करते हैं। सरोवर के मध्य भाग के टीले पर पानी को उल्लंघन करके केवल एकाको श्री महावीर स्वामी का एकान्त में निर्वाण होना पसम्भव सा ज्ञात होता है। "श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा" जो कि दिगम्बर समाज को एक मुखा संस्था है उसके प्रतिष्ठाता स्वर्गीय कुमार देवेन्द्र प्रसादजी जैन एक प्रसिद्ध विद्वान् और कवि थे। उनके प्रकाशित चौबीस तीर्थङ्करों के पट्ट (चार्ट ) में श्री महावीर स्वामी का निर्वाण स्थान सरोवर तट लिखा है। यद्यपि पनि संस्कारादि कार्य ऐसे स्थानों में होना सम्भव हो सकता है, परन्तु भगवान् महावीर परमात्मा का निर्वाण इस प्रकार एकाकी पौर एकान्त में होना कदापि सम्भव नहीं है। दूससे इस बात पर विशेष श्रद्धा और विश्वास हो सकता है कि श्वेताम्बरौ शास्त्रों के वर्णनानुसार भगवान् महावीर आजीवन लोक हितार्थं पायुः के शेष क्षण पर्यन्त अमृत रूपो देशना देते हुए इसो पावापुरौ गांव में ही देह त्याग कर निर्वाण प्राप्त हुए हैं।
निर्वाण तिथि और स्थान के विषय में अधिक लिखना निष्पयोजन है। श्री वीर भगवान् के विषय में तो उनके जन्म के पूर्व से ही श्वेताम्बर और दिगम्बर के वर्णन में कई स्थूल विषयों में भेद पाया जाता है। श्वेताम्बरियों में फिर चाहे वह स्थानकवासी हो, चाहे संबेगी हो, चाहे तेरहपन्थी हो-देवानन्दा ब्राह्मणी को कुक्षि से बून्द्रादेशानुसार हरिणगमेषौ देवता हारा विशला माता की कुक्षि में भगवान् के संक्रमण होने की कथा सर्वत्र मान्य है परन्तु दिगम्बरी सिद्धान्त में यह बात मान्य नहीं है। श्वेताम्बर सिद्धान्तानुसार भगवान् चतुर्दश खप्न सूचित अथवा दिगम्बर मतानुसार षोडश खप्न सूचित होकर माता के गर्भ में पाये थे। इस कारण दोनों मतानुसार दूतना पार्थक्य नहीं है जितना कि श्वताम्बर मतानुसार भगवान् के यौवनारम्भ के समय विवाहादि संसार धर्म की वर्णन में और दिगम्बरी ग्रन्थानुसार भगवान् के आजीवन अविवाहित रहने के वर्मन में भेद पाया जाता है। कल्पसूत्र में भगवान के परिवार वर्णन में उनकी पुत्री