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स्वभाव से सौम्य और श्रेष्ठ हैं, ऊर्ध्वगामी हैं। सभी में परमात्मत्व प्रोत प्रोत है-अन्तर केवल उनके विकास में हैं । जीवों का यह विकास जहाँ उनके निजी भावों पर निर्भर हैं वहाँ बाहिरके द्रव्य, क्षेत्र और काल पर भी निर्भर है। इस भीतर और वाहिरकी स्थितिका आपसमें बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है । एकका प्रभाव दूसरे पर निरन्तर पड़ता रहता हैं। इन स्थितियोंकी प्रति कूलता में जीवका पतन होता हैं और इनकी अनुकूलता में उद्धार होता है। इस लिए मनुष्य को उचित है कि वह अपने भावोंके सुधार के साथअपने देश काल का भो सुधार करता रहे। वास्तव में लोकका सुधार अपना ही सुधार है और परकी सेवा अपनी ही सेवा है। संसार में जीवको जितनी जितनी मात्रा में स्वतन्त्रता, सुभिता सहायता और नेक सुझाव मिलते चले जाते है। उसका जीवन उतना ही विकसित होता चला जाता हैं। इस लिये मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म यह है कि वह सब जीवोंकों अपने समान समझे और अपने समान ही उनके साथ म त्री का व्यवहार करे । जो जीव दुःखी और भयभीत हैं, पराधीन और असहाय हैं उनके साथ दया का व्यवहार करे। जो अपने से गुणोंकी अपेक्षा बड़े हैं उन के प्रति श्रद्धा और प्रमोदका वर्ताव करे। जो जीव विपरीतबुद्धि वा दुर्व्यवहारी हैं. उनसे भी क्षुभित होकर हिंसाका व्यवहार न करें, बल्कि उन्हें रोग और विकारग्रस्त समझ कर उनके साथ माध्यस्थवृत्ति से चिकित्सकके समान बर्ताव करे ।
एकान्तवाद और अनेकान्तवाद विचारकों के हठाग्रह, पक्षपात और एकान्त-पद्धतिके कारण लोगों में जो अहंकार, संकीर्णता, मनोमालिन्य, कलह क्लेश बढ़ रहे थे, उन्हेंने भगवान महावीर के ध्यानको विशेषरूप से आकर्षित किया था, भगवानने इस एकान्त पद्धतिको ही ज्ञान-अवरोध, मानसिक संकीर्णता, हार्दिक द्वेष और मौखिक वितण्डोंका कारण ठहरा कर इसकी कठोर समालोचना की थी और बतलाया था कि सत्य, जिसे जानने की सब में जिज्ञासा बनी है, जिसके सम्यक्ज्ञानसे मुक्तिकी सिद्धि होती है, बहुत ही गहन और गम्भीर है, वह अनेक अपेक्षाओं का पुञ्ज है, अनेक