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लोग रोग, मरी, दुर्भिक्ष जलबाढ़, प्रान्धी तूफान, भूकम्प, ज्वालस्फो:, टिड्डीदल, चूहे और साँप आदिके भयानक उपद्रवों को अनेक क्रूरकर्मा रुद्र स्वभाव देवी-देवताओं की शक्तियाँ कल्पित करते थे और उन की शान्ति के लिए अनेक प्रकार के घिनावने तान्त्रिक विधान पशुवलि और नरमेधका प्रयोग करते थे। वौदिक प्रार्थों के देवता यद्यपि इनकी अपेक्षा सौम्य और सुदर थे परन्तु दृष्टि वही आधिदैविक थी। ये इनसानी जिन्दगी को सुख-सम्पत्ति देने बाली इन्द्र, अग्नि, वायु वरुण, सूर्य आदि देवताओं को मानते थे। इस लिये धन धान्यकी प्राप्ति, पुत्र पौत्रों की उत्पत्ति, दीर्घायु आरोग्यताको सिद्धी शत्र विजय आदि की भावनाप्रो से उन देवताओं को यज्ञों-द्वारा खूब सन्तुष्ट करते थे। इन यज्ञोंमें बनस्पति घी आदि सामग्रीके अलावा पशुओं की भी खूब बलि दी जाती थी। इस तरह विश्वासों ने मनुष्योको अत्मविश्रास और पुरुषार्थ से हीन बना कर देवताओं का दास ही बनादिया था। इस हालतसे उभारने के लिये महाबीर ने बतलाया था कि मनुष्य का दर्जा देवताओं से बहुत उचां हैं । मनुष्य अपने बुद्धिबल और योगबल से न केवल देवताओंको अपने आधीन कर सकता है बल्कि वे काम भी कर सकता है, जो देवताओं के लिए असम्भव हैं मनुष्य योगसाधनासे परिणभा, गरिमा आदि अनेक सिद्धियों को हासिल कर सकता हैं और अपने को परमात्मा तक से मिला सकता है। मनुष्यका सुख दुःख देवताओं के आधीन नहीं है। बल्कि स्वयं अपनी ही वृत्तियों और कृतियों के आधीन है-जो जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है कर्म से ही स्वर्ग और कर्मसे ही नरक मिलता है। इसलिये मनुष्य को कम करने में बड़ा सावधान होना चाहिये संसार के सभी जीव
(9) Prof. Hermann Jacobi-S. B. E. Vol. XLV Jaiua Sutras Part 11, 1895-Introduction pp. XIV-XXXVI. (इ) R. B. Ramprasad Chanda-Survival of the Prehistoric civilisation on the indus Valley-pp. 25-33.