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________________ ( ४५ ) पणमवि केवल लच्छिवरं चउवीसमउ जिणचन्दो । गाइसु खरतर जुगपवर, आणिसुमन आनन्दो। अहे पहिलज जुगवर जगि जयउ श्रीसोहमस्वामि ख. प. जन ऐ. का. स. पृष्ठ २१५ पणमिव वीर जिनन्द चन्द कपसुकय पवेसो खरतर सुरगुरु गच्छ स्वच्छ गणहर पभणेसो तसु पय पंकय भमर समरसजि गोयमगणहर तिणि अनुकमी सिरि नेमिचंद मुणिगुणिगणुमुणिहर ख. प. जैन ए. का. सं. पृष्ठ ३१४ उपरोक्त खरतरों के पूर्वजों के प्रमाणों को अधुनिक खरतर सत्य समझते हैं तो केवल जिनेश्वरसूरि को ही खरतर विरुद मिला कहना असत्य साबित होता है क्योंकि जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्द्धमानसूरि और वर्तमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरिभी खरतर थे, इतना ही क्यों पर सौधर्म और गौतम गणधर भी खरतर ही थे फिर यह खरत्व की वरमाला एक जिनेश्वरसूरि के गले में ही क्यों डाली जाती है ? यदि खरतर लोग एक कदम आगे बढ़ जाते तो वे भगवान महावीर को भी खरतर बना सकते थे, पर समझ में नहीं आता है कि खरतरों ने यह भूल क्यों की होगी ? वाहरे खरतरो ! मिथ्या लेख लिखने की भी कुछ हद-मर्याद होती है, पर तुम लोगों ने तो मर्यादा का भी उल्लंघन कर इस प्रकार मनः कल्पित लेख लिख डाला है कि जिसके न तो कोई. सिर है और न कोई पैर ही है ।
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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