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________________ हो चुका है कि खरतरशब्द की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं, पर उनके बाद १२५ वर्ष के करीबन जिनदत्तसूरि से हुई है जिसको मैं आगे चल कर तीसरे भाग में बतलाऊँगा। ____खरतरों ने केवल एक जिनेश्वरसूरि को ही खरतर कहने में बड़ी भारी भूल की है । यदि हमारे खरतर भाई अपने पूर्वजों के बनाये अर्वाचीन पट्टावल्यादि प्रन्थों को ठीक पढ़ लेते तो खरतर विरुद की वरमाला जिनेश्वरसूरि के गले में नहीं डाल कर वर्द्धमानसूरि, उद्योतनसूरि ही नहीं पर गणधर सौधर्माचार्य और गुरु गौतम स्वामि के गले में डालने का सौभाग्य प्राप्त कर लेते और इस बात के प्रमाण भी खरतरों के पास काफी थे और वे भी खास खरतरों के पूर्वजों के रचे हुये ग्रन्थों के कि जिसमें किसी खरतर को शंका करने का स्थान ही नहीं मिलता, जैसे किः "श्रीवीरशासने क्लेशनाशने जयिनिक्षितौ सुधर्मस्वाम्यपत्यानिगणाः सन्ति सहस्त्रशः ॥१॥ गच्छः खरतरस्तेषु समस्ति स्वस्ति भाजनम् यत्राभूवन गुणजुषो गुरवो गतकल्मषाः ॥२॥ श्रीमानुद्योतनः सूरिवर्द्धमानो जिनेश्वरः । जिनचन्द्रोऽभयदेवो नावाङ्ग वृति कारकः ॥ ३॥ श्रीआचारांग सूत्र दीपका-कर्ता जिनहंससूरि इस लेख में जिनहंससूरि ने उद्योतनसूरि एवं वर्द्धमानसूरि को खरतर लिखा है । आगे और देखिये श्री महावीरतीर्थे श्रीसुधर्मस्वामि सन्ताने श्रीखरतरगच्छे श्रीउद्योतनसूरिः श्रीर्वद्धमानसरिः श्रीजिनेश्वरसूरि श्रीजिनचन्द्र
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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