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________________ ( ४१ ) खरतरों की ओर से उपरोक्त प्रमाण, वि० सं० ११२० से वि० सं० १३१७ तक के प्रमाणों में खरतर शब्द की गन्ध तक भी नहीं है। हाँ जिनेश्वरसूरि का पाटण जाना और पिछले लोगों का शास्त्रार्थ की कल्पना करना हम ऊपर लिख आये हैं, फिर समझ में नहीं आता है कि खरतर इन प्रमाणों से क्या सिद्ध करना चाहते हैं । इन प्रमाणों से तो उल्टा यह सिद्ध होता है कि वि० सं० १३१७ तक तो किसी भी खरतरों की यह मान्यता नहीं थी कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में खरतर विरुद मिला था । खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि की खर ( कठोर ) प्रकृति के कारण हुई थी; जिस खरतर शब्द को वे अपना अपमान समझते थे । पर चौदहवीं शताब्दी में वह अपमानित खरतर - शब्द गच्छ के रूप में परिणित हो गया । जैसे ओसवालों में चंडालिया बलाई ढेढ़िया वग़ैरह जातियां हैं । जब इनके यह नाम पड़े थे तब तो वे नाराज होते थे पर बाद दिन निकलने से वे अपने हाथों से पूर्वोक्त नाम लिखने लग गये । यही हाल खरतरों का हुआ है जो खरतरशब्द अपमान के रूप में समझा जाता था, दिन निकलने से खरतर लोग अपने हाथों से लिखने लग गये। आगे चल कर एक प्रमाण और देखिये जिनवल्लभसूरि ने भगवान महावीर का गर्भापहार नामक छट्ठा कल्याणक रूपी उत्सूत्र प्ररूपना करके अपना 'विधि मार्ग' नामका नया मत निकाला । आपके देहान्त के बाद इस नूतन मत की भी दो शाखा हो गईं। एक जिनदत्तसूरि की खरतर शाखा और दूसरी जिनशेखरसूरि की रुद्रपाली शाखा ।
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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