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मत नहीं निकाल सकता था तथा किसी ने उत्सूत्र प्ररूपना की तो उसको फौरन संघ बाहर भी कर दिया जाता था । चैत्यवासियों के लिये सबसे पहिले की थी, आपका समय जैनपट्टावलियों के छठी शताब्दी का कहा जाता है, और शिथिलता की थी न कि चैत्यवास की। - स्वयं चैत्यवासी थे । इतना ही क्यों पर आपने समरादित्य की - कथा में यहां तक लिखा है कि साध्वियों के उपाश्रय में जिन प्रतिमायें थीं और उस चैत्य में रही हुई साध्वियों को केवल ज्ञान भी हो गया था । अतः हरिभद्रसूरि के मत से चैत्यवास बुरा नहीं था पर चैत्यवास में जो विकार हुआ था वही बुरा था और • उनकी पुकार भी उस विकार के लिये ही थी ।
चैत्यवासियों के लिये दूसरी पुकार वर्द्धमानसूरि की थी । "आपका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का था, आपकी यह -पुकार स्वभाविक ही थी क्योंकि वर्द्धमानसूरि स्वयं चौरासी चैत्य के अधिपति एवं चैत्यवासी थे और उन्होंने चैत्यवास को छोड़ - दिया तो वे चैत्यवासियों के लिये पुकार करें इसमें आश्चर्य ही क्या था । वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामक दो ब्राह्मणों को दीक्षा दी और उनको पाटण भेजे । उन्होंने वहां जाकर वसतिमार्ग नाम का एक नया पन्थ निकाला । इस वसति• मार्ग मत के जन्म के प्रायः सब चैत्यवासी ही थे ।
पुकार हरिभद्रसूरि ने आधार से विक्रम की उनकी पुकार आचारक्योंकि हरिभद्रसूरि
तीसरा नम्बर है जिनवल्लभसूरि का, आपका समय बिक्रम की बारहवीं शताब्दी का था और आप भी पहिले चैत्यवासी ही थे । चैत्यवास छोड़कर इन्होंने भी चैत्यत्रासियों की खूब ही