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________________ ( २४ ) लेखांक २३८५ में तो जिनदत्तसूरि कों खरतरगच्छावतंस भी लिखा है अतः खरतरमत के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही थे । पर विक्रम की सत्ररवीं शताब्दी में तपागच्छ और खरतरों आपस में वाद-विवाद होने से खरतरों ने देखा कि जिनेश्वरसूरि के लिये पाटण जाने का तो प्रमाण मिलता ही है इसके साथ शास्त्रार्थ की विजय में 'खरतर विरुद' की कल्पना कर ली जाय तो नौअंग वृत्तिकार अभयदेवसूरि भी खरतर गच्छ में माने जायेंगे और इनकी बनाई नौअंग की टीका सर्वमान्य है । अतः सर्व गच्छ हमारे आधीन रहेंगे । बस इसी हेतु से इन लोगों ने कल्पित ढांचा खड़ा कर दिया । पर अन्त में वह कहाँ तक सच्चा रह सकता है। जब सत्य की शोध की जाती है तो असत्य की कलई खुल ही जाती है। खरतर शब्द को प्राचीन प्रमाणित करने वाला एक लेख खरतरों को फिर अनायास मिल गया है और वह पल्ह कवि कृत खरतर पट्टावली का है । जैसा कि "देव सूरि पहु नेमि वहु, बहु गणिहि पसिद्धउ । उज्योयणु तह वद्धमाणु, खरतर वर लद्धउ ॥" इस लेख से कवि ने लिखा है कि 'खरतर विरुद' प्राप्त करने वाले जिनेश्वरसूरि नहीं किन्तु उद्योतनसूरि और वर्द्धमानसूरि हैं । जिन लोगों का कहना था कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में दुर्लभराज ने खरतरविरुद इनायत किया था यह तो बिल्कुल मिथ्या ठहरता है । क्योंकि जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि और वर्धमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरि थे । यदि उद्योतनसूरि
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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