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________________ (२३) . असम्भव है । उन्होंने तो अपने गच्छ का नाम ही रुद्रपाली गच्छ रक्खा था । इस विषय में विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी का उल्लेख हम ऊपर लिख पाए हैं। अतः इस लेख के लिए अब हम दावे के साथ यह निःशंकतया कह सकते हैं कि उक्त ११४७ सम्वत् का शिलालेख किसी खरतराऽनुयायी ने जाली ( कल्पित ) छपा दिया है । नहीं तो यदि खरतर भाई आज भी उस मूर्ति का दर्शन करवा दें तो इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ सकता है। ____ भला! यह समझ में नहीं आता है कि खरतरलोग खरतर शब्द को प्राचीन बनाने में इतना आकाश पाताल एक न कर यदि अर्वाचीन ही मान लें तो क्या हर्ज है ? जिनदत्तसूरि के पहिले खरतर. शब्द इनके किन्हीं आचार्यों ने नहीं माना था। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का शिलालेख हम पूर्व लिख आये हैं। वहाँ तक तो खरतर गच्छ मंडन जिनदत्त सूरि को ही लिखा मिलता है इतना ही क्यों पर उसी खण्ड के ® श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा बोकानेर वालों द्वारा मालूम हुभा कि वि० सं० ११४७ वाली मूर्ति पर का लेख दब गया है। अहा-क्या वात है-आठ सौ वर्षों का लेख लेते समय तक तो स्पष्ट बचता था बाद केवल ३.४ वर्षों में ही दब गया, यह आश्चर्य की बात है। नाहटाजी ने भीनासर में भी वि० सं० ११८१ की मूर्ति पर शिलालेख में 'खरतर गच्छ' का नाम बतलाया है। इसी का शोध के लिये एक आदमी भेजा गया, पर वह लेख स्पष्ट नहीं बचता है, केवल अनुमान से ही १९८१ मान लिया है। खैर इसी प्रकार बारहवों शताब्दी का यह हाल है तब हम चाहते हैं जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागर और अभय देवसूरि के समय के प्रमाण
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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